नवगीत
महका गायन
संजय कौशिक 'विज्ञात'
मापनी ~~ 16/16
चिर परिचित यौवन सा महका,
कली पिपासित महका गायन।
व्याकुलता की बजी बाँसुरी,
विरह भ्रमर का सुन गुंजायन।
1
अमृत का तारुण्य कलश वो,
नख शख तक सौंदर्य मनोहर।
लिखे कल्पना कवि सौ मिलकर,
उससे भी कुछ श्रेष्ठ धरोहर।
विश्व मोहिनी जल भर लाये,
उर्मि वारती लाखों गौहर।
इंद्र चन्द्र भी आहें भर के,
देख बनाना चाहें व्योहर।
कृति अनुपम सी जग सृष्टा की,
सोच रची अद्भुत विश्वायन ........
2
रति लज्जित उस कामदेव की,
वो निज अवगुंठन जब खोले।
नेत्र कटारी से मारक हैं,
शांत चित्तमय वो कुछ बोले।
भौंह कमान चढ़ी प्रत्यंचा,
ताकत तीर हृदय की तोले।
रतनारे अधरों के हिलते,
रक्त धमनियाँ धीरज डोले।
तरुणाई लालित्य प्रलोभन,
शील नदी का चाहे स्नायन ....
संजय कौशिक 'विज्ञात'
ReplyDeleteचिर परिचित यौवन सा महका,
कली पिपासित महका गायन।
व्याकुलता की बजी बाँसुरी,
विरह भ्रमर का सुन गुंजायन।
वाह बहुत ही सुन्दर श्रृंगार रस नमन गुरु देव आप को और आप की लेखनी को।
श्रृंगार रस का खूबसूरत उदाहरण है आपका नवगीत।अवगुंठन के बाद दूसरी बार श्रृंगार रस की रचना पढ़ी आपकी ...अद्भुत लेखन 👌👌👌 नमन आपकी लेखनी को जो हर विधा हर रस पर कमाल का लेखन करती है 🙏🙏🙏ढेर सारी बधाई आदरणीय 💐💐💐💐
ReplyDeleteवाह अप्रतिम रचना
ReplyDeleteशब्दों का अथाह भण्डार है आपके शब्द कोश में आदरणीय सर!हर रस पर, हर विधा में आपकी लेखनी बखूबी चलती है।एक और आदर्श एवं प्रेरणादायक नवगीत 👏👏👏👏👏👏👏👏
ReplyDeleteसुंदर मनभावन सृजन जो लिखने और सोचने को प्रेरित करता है बहुत-बहुत बधाई आदरणीय
ReplyDeleteअति सुन्दर श्रृंगार लिए आपकी ये रचना क्या कहने जोरदार
ReplyDeleteBahut hi sunder rachana hai
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