नवगीत
डरावनी रातें
संजय कौशिक 'विज्ञात'
मापनी ~~ 16/16
डरावनी सी रातों में क्यों
दरक गया मेरा ये जीवन।
श्वेत उजाला क्यों लड़ बैठा,
भड़क गया करके वो अनबन।
1
झंकृत वीणा से स्वर फूटे,
अटक अटक कर तान बनी।
राग बजाये मोहक सारे,
उच्चाटन की पहचान बनी।
अन्तस् धरणी बंजर दिखती,
उठता सा धूम श्मशान बनी।
बहुत थूकते बहुत चबाते,
कत्थे का मीठा पान बनी।
इन सबसे मन ऊब चुका अब,
धड़क अटकती हैं कुछ धड़कन....
2
हृदय विदारक मौन छिपाये,
मंथन का ही ज्ञान लिया जब।
आत्म चीख के सन्नाटों को,
भाग्य स्वयं का मान लिया जब।
दृश्य मनोहर लिए कटारी,
उनको अपना जान लिया जब।
अस्त्र उन्हीं ने सीधे हमपर,
पीछे से आ तान लिया जब।
अर्पण हृदय किया था जिसको,
पलट मांगता वो ही गर्दन ....
संजय कौशिक 'विज्ञात'
बहुत ही सुन्दर गीत । एक एक शब्द अंतस को भींचती हुई सी ।
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर नवगीत ... बहुत ही मार्मिक और हृदयस्पर्शी 👌👌👌 नमन आपकी लेखनी को 🙏🙏🙏
ReplyDeleteबहुत सुन्दर गीत
ReplyDeleteबहुत ही बेहतरीन नवगीत आदरणीय
ReplyDeleteआम जीवन से चुन कर नव व्यंजनाओं का अभिनव सृजन ।
ReplyDeleteअर्पण हृदय किया था जिसको,
ReplyDeleteपलट मांगता वो ही गर्दन ....
वाह बहुत खूब बहुत सुन्दर सृजन
बहुत खूब
ReplyDeleteअद्भुत व्यंजनाओं को समेटे एक आदर्श नवगीत 👌👌👌👌👌👌👌
ReplyDeleteहृदय विदारक मौन छिपाये,
ReplyDeleteमंथन का ही ज्ञान लिया जब।
आत्म चीख के सन्नाटों को,
भाग्य स्वयं का मान लिया जब।
एक एक पंक्ति अंतस को चीरती हुई..अति सुन्दर सृजन आदरणीय 👌👌👌👌
बहुत सुंदर आदरणीय आपका यह नवगीत बहुत भावुक मार्मिक
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