नवगीत
लहर पावनी
संजय कौशिक 'विज्ञात'
मापनी ~~16/14
घुमा केश की गुंथित वेणी
लहर पावनी मुस्काई
हिमालय सी शीतलता ले
वेग सहित मिलने आई।।
1
अधर खिलाये रतनारे से
गुड़हल भी लज्जित होते
भ्रमर बाग के देख ताजगी
स्वयं वहाँ संयम खोते
चपल चंचला कांति दमकती
दसन अनारी हर्षाई।।
2
यौवन का रस भरा कलश में
हर धड़कन से कुछ छलके
दृश्य मुग्ध मन विचलित पलकें
सुंदरता ऐसी झलके
भेदे तीर कमान निशाने
भौंह हिलाती तरुणाई।।
3
सूर्य साँझ का बैठ भाल पर
दमक कांति विद्युत देता
नेत्र अनंत चमक तारे से
नभ मण्डल इनसे लेता
राजा काम तीर से मूर्छित
परी खड़ी जब लहलाई।।
संजय कौशिक 'विज्ञात'