Friday, May 8, 2020

नवगीत : लहर पावनी : संजय कौशिक 'विज्ञात'




नवगीत 
लहर पावनी 
संजय कौशिक 'विज्ञात' 

मापनी ~~16/14

घुमा केश की गुंथित वेणी
लहर पावनी मुस्काई
हिमालय सी शीतलता ले
वेग सहित मिलने आई।।

1
अधर खिलाये रतनारे से
गुड़हल भी लज्जित होते
भ्रमर बाग के देख ताजगी
स्वयं वहाँ संयम खोते
चपल चंचला कांति दमकती
दसन अनारी हर्षाई।।

2
यौवन का रस भरा कलश में
हर धड़कन से कुछ छलके
दृश्य मुग्ध मन विचलित पलकें
सुंदरता ऐसी झलके
भेदे तीर कमान निशाने
भौंह हिलाती तरुणाई।।

3
सूर्य साँझ का बैठ भाल पर
दमक कांति विद्युत देता
नेत्र अनंत चमक तारे से
नभ मण्डल इनसे लेता
राजा काम तीर से मूर्छित
परी खड़ी जब लहलाई।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Thursday, May 7, 2020

नवगीत : चतुरंगिणी : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत
चतुरंगिणी 
संजय कौशिक 'विज्ञात' 

मापनी~~16/14


मौन गूँजते मन आँगन में
कंपित से भयभीत हुये
चतुरंगिणी पड़ी है सेना
अश्रु नेत्र के रीत हुये।।

1
ढेर अठारह लगे पड़े हैं
लाखों की यह बात करे
दिवस सूर्य को लेकर डूबा
अँधियारी सी रात डरे
उल्लू बोल रहे महलों में
कैसे काज पुनीत हुये।।

2
सुबक द्रौपदी ठहरे. सुबके
दसों दिशायें थी काली
चिता जले. चिंघाड़े हाथी
उनकी भी खुशियाँ खाली
काल बली से करें याचना
अंतिम क्षण नवनीत हुये।।

3
एक युगी वे रातें कटती
दिन के तो क्षण कब दिखते
व्यास प्रभो की अनुकम्पा सब
नित्य निरन्तर जो लिखते
छंद यथार्थ खड़े से टसकें
और बंध सब गीत हुये।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Wednesday, May 6, 2020

नवगीत : पस्त हुआ संयम : संजय कौशिक 'विज्ञात'




नवगीत
पस्त हुआ संयम 
संजय कौशिक 'विज्ञात' 

मापनी ~~16/16

पस्त हुआ संयम हरबारी
मौन लगा फिर देख खटकने 
बिम्ब मुकुर हिय सौ-सौ चमकें
आहत पाकर लगे चटकने।।

धीर वीर का अनुपम गहना
शौर्य पराक्रम सब बिखरा सा
रूप सलौना करके खण्डित
चला गया था जो निखरा सा
रूप वही सौंदर्य निराला
और चमक को लगा झटकने।।

इस काल चक्र की भिन्न नियति 
पाषाणी सी किलकार करे
कर्म धर्म के भेद बताकर
तोल तराजू व्यवहार करे
किसको कैसे कब ठगना है
खेल खेलता लगा पटकने।।

खिन्न हुआ मन शूल क्षणों में
रक्तिम अन्तस् पीर उगलता
बहता दिखता इन आँखों से
भीतर लावा एक सुलगता
पाकर खुशियों का पतझड़ सा
लगा कष्ट विष आज गटकने।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

नवगीत : शब्दों का मधुबन : संजय कौशिक 'विज्ञात



नवगीत 
शब्दों का मधुबन
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी~~ 16/14 

कोरे पृष्ठों पर कोरी सी
नित्य पढ़े कविता ये मन
हर्षित हिय के इस आँगन में
गूँजे शब्दों का मधुबन।।

छंद धार का बहना अविरल
प्राण तत्व का सार बना
भाव बिखेरें बीज खुशी के
जिनसे उपवन हरा घना
बैठ इसी हरियाली में फिर
राहत पाता है ये तन

कल्पित मंच निराला बनके
पाठ नई कविता कहते
कितने हुए बड़े कवि न्यारे
और विकट पढ़ते रहते
भंग हुई लय मुझे बताकर
सिद्ध करें उससे अनबन

बिम्ब पंत से ढूँढ ढूँढ कर
छायावादी शिल्प गढ़ा
साहित्य शुद्ध प्रस्तुति देकर
उनका उत्तम भाव पढ़ा
हिन्दी तत्सम तद्भव पढ़के
स्मरण करें अपना बचपन

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Tuesday, May 5, 2020

नवगीत : खिलखिलाई रात : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत 
खिलखिलाई रात
संजय कौशिक 'विज्ञात' 

मापनी ~~ 14/12 

पाश आलिंगन बँधा फिर
स्पर्श चुम्बन जड़ गया
रात हँस कर खिलखिलाई
स्वप्न कोई अड़ गया।।

लौहबानी सी पिघलती 
दे महक गूगल पृथक
आस चिंगारी दहकती
जो निरंतर सी अथक
और धड़कन तीव्र थी कुछ
नेक बनता धड़ गया।।

मोम सा बन तन बहा कुछ
ले तपिश कुछ श्वास की
बाँह लोहे सी कठोरी 
भूख पहली ग्रास की 
वो महक पाटल बना फिर 
गंध बनकर झड़ गया।।

शशि चकोरी बावले से
हाल उससे थे अधिक
प्रेम की मूरत बने वो
थे नहीं विचलित तनिक
पा समर्पण चांदनी का
वो अचानक पड़ गया।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

नवगीत : आकृति : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत 
आकृति
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी~~ 16/16


श्याम श्वेत सी दृग में आकृति
उठती कोई हूक उठाकर।
सूना जीवन देख रहा है
आज हृदय का पटल झुकाकर।।

ऋतुएं सारी रस बिन आती
उल्लास पर्व के छूट गये
और विवेकी अन्तस् मन के
हर्षित क्षण सारे लूट गये।
रूठ गये अपने जब सारे
विचलित बाती दीप बुझाकर

राग मल्हारी भूले बैठे
जब पगडण्डी पर चोट लगे
आना जाना होता बाधित 
मिटती खुशियों की ओट लगे
सोने में खोट लगे पिलता
मोल करें क्या भाव टिकाकर

सांकल ताले बन्द पड़े से
और सभी सोची अड़चन 
बदरा काली घिर कर आई
करती बूंदों से वो अनबन
कटी प्याज की खुशबू यादें
ठहर गई आँखों में आकर

संजय कौशिक 'विज्ञात'