नवगीत
तपस्विनी सी धरा
संजय कौशिक 'विज्ञात'
मापनी ~~16/14
तपस्विनी सी धरा तपे फिर
ध्यान मगन है नभ मण्डल
मध्य भाल के केंद्र बिंदु में
सुलग रहे हैं ज्यों बण्डल।।
शुष्क अंजली अर्ध्य चढ़ा कर
नित्य यहाँ पूजन करती
रक्त वाहिनी बनी नदी ये
रिक्त पड़ी बहती दिखती
और धूल की उठती खुशबू
मानो महका हो संदल।।
जेष्ठ मास भी बना तपस्वी
तपता रहता निशिवासर
मिले श्वास को सिद्धि सुधा कुछ
सोच रहा यह संवत्सर
मुरझाई सी खिले कहीं पर
आज प्रेम की वो डंठल।।
पद्मासन का मूर्ति रूप से
प्राणवायु प्राणायामी
पूरक कुम्भक रेचक करती
नित्य निरन्तर आयामी
मेघ भृकुटि से तने खड़े फिर
सूर्य चन्द्र से हैं कुण्डल।।
संजय कौशिक 'विज्ञात'