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Wednesday, December 29, 2021

तुकांत क्या है ? विस्तृत जानकारी उदाहरण सहित : संजय कौशिक 'विज्ञात'

तुकान्त क्या है ? 


किसी भी रचना के अंत में प्रयोग किये जाने वाली तुकबंदी को तुकांत कहते हैं। तुकांत प्रायः तीन प्रकार का कहा जाता है 
1 उत्तम तुकांत 
2 मध्यम तुकांत 
3 निम्न तुकांत 
इन तीनों श्रेणी से जिस पंक्ति का अंत नहीं मिलता वह पंक्तियाँ 'अतुकांत' कहलाती हैं

उत्तम तुकांत - 
उदाहरण 1
किसी पाषाण से मूरत प्रकट यूँ एक हो जाती।
तभी छेनी हथौड़ी पर विजय के गीत वो गाती।
कलम यूँ पृष्ठ पर चलती हुआ निर्माण ये बोले।
मुझे निर्मित करे कविता सदा सम्मान ये पाती।।
©संजय कौशिक 'विज्ञात'

उदाहरण - 2 
कहीं हीरे कहीं मोती बहुत से रत्न चमकीले।
परखते जौहरी देखें खिले जो लाल थे ढीले।
कहे विज्ञात आभारी करे आभार यूँ सबका।
हुआ साहित्य सम्मानित हुए दृग हर्ष से गीले।।
©संजय कौशिक 'विज्ञात'

गाना आना जाना माना ( नीले पीले चमकीले गीले) और (जाती आती गाती पाती) जिनके उच्चारण में प्रवाह समान दिखें स्वर व्यंजन का भार समान हो और जो कविता की तुकबंदी को मधुर सरस तथा आकर्षण युक्त बनाते हैं। जैसे :- 
उदाहरण -3 
लज्जित करता है कागों को, कोयल का स्वर में गाना।
रूप समान मिला था किंतु, उसने अपना गुण जाना।।
कैद नही होती पिंजरे में, और न सहती तानों को।
हर्षित करता है हर मन को, उसका द्वारे पर आना।।
©नीतू ठाकुर 'विदुषी' 

मध्यम तुकांत - 
'मिलना उबलना निखरना मटकना' इस प्रकार की तुकबंदी में स्वर और व्यंजन का भार समान प्रवाह में नहीं होता। यहाँ पर केवल 'ना' की 
मिलना-खिलना, उबलना-उछलना, निखरना-बिखरना, मटकना-झटकना, अब प्रारम्भ के तुकांत हम किसी रचना में देखेंगे तो निःसन्देह इन तुकांत में वो प्रवाह नहीं है जो उत्तम तुकांत में होता है। अब मस्तिष्क में प्रश्न पुनः उठता है कि मध्यम तुकांत और उत्तम तुकांत में अंतर क्या है और इसे कैसे समझें तो मैंने उत्तम तुकांत के योजक चिह्न के साथ युग्ल बनाने का प्रयास किया है इनके उच्चारण से स्पष्ट हो जाएगा कि मध्यम तुकांत और उत्तम तुकांत में क्या अंतर है समान प्रवाह जहाँ होगा वही उत्तम तुकांत कहा जायेगा। जैसे :- 
उदाहरण - 
झूठे मद ने सिखलाया था, बिना बात के नित्य उछलना।
खुशियों की थी आस मगर, निश्चित था दुख का गिरि पड़ना।।
कब मिलता है जो माँगे मन, हाथ पसारे अब विधिना से।
कर्मों की ज्वाला में तप कर, तय है यश का रूप निखरना।।
©नीतू ठाकुर 'विदुषी' 

इन रचना में 3 पंक्तियों में तुकांत निभाये गए हैं तीनों पंक्तियों के तुकांत देखो और समझो 
उछलना ... 
पड़ना ... 
निखरना ... इन तुकांत का प्रयोग रचना की दृष्टि से लय में गूंथा हुआ है अब स्वतंत्र रूप से इनका उच्चारण करके देखेंगे तो स्पष्ट दिखाई दे रहा है कि इनमें अअना तो कहीं अअअना का उच्चारण है और उच्चारण के आकर्षण की दृष्टि से देखें तो भी इनमें प्रयोग होने वाले ना से पूर्व के व्यंजन कुछ अखर रहे हैं तो इस अखरन को आप समझ सकते हैं जिस कारण इस प्रकार के तुकांत को मध्यम तुकांत की श्रेणी में रखा गया है। 

अब जो इन दो तुकांत की श्रेणी से पृथक कोई तुकांत दिखे तो वह निम्न तुकांत होता है। 

उदाहरण - 
चार युगों की गाथा प्यारी।
वेद शास्त्र के मुख से उकरी।।
भक्ति भाव गंगा में डूबी।
मीरा जी हो गई बावरी।।
©संजय कौशिक 'विज्ञात'

अब इन सबसे पृथक 
अतुकांत को देखते और समझते हैं 

अतुकांत कविता 

अतुकांत कविता के अंतिम शब्दों की तुकबंदी पंक्तियों को क्रमानुसार ऊपर से नीचे देखेंगे तो ये पंक्तियाँ बिना तुक के होती हैं। अतुकांत शब्दों से निर्मित कविता में ध्वनियाँ परवर्तित होती रहती है। कविता लयबद्ध नहीं होती है। परन्तु ध्यान रहे बिम्ब या प्रतीक बदलते ही पंक्ति बदल जाती है। देखें इस उदाहरण को जो समझने में सहयोग करता है अतुकांत कविता को ... 
"अतुकांत कविता सीधी सरल अभिव्यक्ति है जो एक भाव प्रवाह में बहती हुई पूर्णत्व को प्राप्त करती है बिना किसी नियमावली में बँधे।"

पाषाण 

हाँ मैं 
पाषाण हूँ 
छेनी की धार 
मार हथौड़ी की 
प्रहार असंख्य सहता हूँ 
खंड खण्डित 
नित्य होकर
अपने ही तन से 
अनगिनत टुकड़ों में 
बँट जाता हूँ 
जब मेरी पाषाणी चमड़ी 
छिली जाती है 
कितनी पीड़ा 
मुझी में से 
धूल के आँसू बन कर 
उड़ती है
कौन समझता है 
मेरा कष्ट ?
आकृति मूर्ति देखकर 
तुम कहते हो 
भगवान
हाँ मैं 
पाषाण हूँ

©संजय कौशिक 'विज्ञात'



तुकांत का महत्व:- 

घेर रही है बिषय वासना 
अब मैं यदि इस पंक्ति पर 4 तुकांत ढूँढना चाहूँ तो मुझे सार्थक तुकांत समझ नहीं आ रहा फाँसना एक सार्थक तुकांत है पर यह उत्तम नहीं बनता कारण अनुनासिका का प्रयोग मेरी पहली पंक्ति में नहीं है फिर मैंने घास ना पास ना आदि पर विचार किया उच्चारण की दृष्टि से पर लेखन में ये संयुक्त नहीं हैं तो मेरी रचना जिसे मैं उत्तम कृति के रुप में प्रस्तुत करना चाहता था उसमें इस प्रकार के तुकांत उत्तम नहीं हैं तो मुझे ये मध्य स्तर के दिखाई दिए।  फिर मैंने थोड़ा सा बुद्धि पर और दबाव डाला तो मुझे कुछ सार्थक तुकांत दिखाई दिए डासना, ग्रासना, उपासना चासना, खासना पर इनसे भी मेरे कथन को कुछ नव्यता मिल सके और ये तुकांत सभी सार्थक तथा उत्तम लगें इसमें संदेह दिखाई दिया फिर शब्द कोष का सहारा लेना उचित समझा तो मैंने पाया कि ग्रासना उपासना तथा भासना कुछ सार्थक दिखे तो अब मैं आगे बढ़ने का निर्णय ले सकता हूँ 
घेर रही है विषम वासना
लालच चाहे जिसे ग्रासना
खड़ी प्रतीक्षा में है भविता
करे कर्म की नित उपासना 

अब इन मध्यम तुकांत के माध्यम पंक्तियाँ पृष्ठ पर उतर गई हैं मैंने मध्यम तुकांत क्यों कहा कारण यही है शिल्प की दृष्टि से मात्रा भार भले तीनों तुकांत सही प्रयोग हो गए हैं परंतु केवल तुकांत का प्रवाह देखें तो एक में आधा ग् तथा दूसरे में उ का होना प्रवाह में परिवर्तन कर रहा है। इस प्रकार से आप समझ सकते हैं कि रचना लिखने से पूर्व ही हमें तुकांत के विषय में मंथन कर लेना कितना आवश्यक है। इसके महत्व के विषय में आप स्वयं विवेक से निर्णय ले सकते हैं कि तुकांत उत्तम मध्यम या निम्न स्तर के प्रयोग करने हैं। "उत्तम रचना सदैव उत्तम तुकांत की अपेक्षा रखती है। जिसके प्रयोग से रचना के पाठन प्रवाह में विशेष आकर्षण प्राप्त होता है।" 



तुकांत का मंथन करें सावधानी के साथ :- 

अधिकांशतः देखा जाता है कि देश विदेश स्वदेश तुकांत लिख दिए रचना में और रचना पूरी परंतु ध्यान से देखेंगे तो पाएंगे यह निम्न स्तर का तुकांत है इसमें तुकांत दोष है कारण सभी तुकांत में देश शब्द प्रयोग हुआ है अब इसे पूर्व का वर्ण पृथक नहीं है स्व वि - जबकि देश में आगे कोई वर्ण है ही नहीं तो इस प्रकार के तुकांत निम्न श्रेणी के तुकांत होते हैं। 

अब हमें आवश्यकता है देश जैसे शब्द के तुकांत ले रहे हैं तो द बदला जाए जैसे परिवेश 
अब ध्यान रहे कि भेष शेष जैसे तुकांत भी यहाँ निम्न तुकांत ही कहलाएंगे। 
इस प्रकार रचना रचने से पूर्व ही हमें अपने तुकांत पर मंथन कर लेना अत्यंत आवश्यक है। 




तुकांत कैसे निर्धारित करें तथा खोजें :- 

लगभग तो मैं बता चुका हूँ कि तुकांत क्या है इसका महत्व क्या है मंथन क्यों अनिवार्य है सावधानी कैसे रखें इतना सब करलेने से जो तुकांत निकल कर आएंगे यही तुकांत की खोज का एक मात्र उत्तम मार्ग कहलाता है तुकांत की खोज का... भावों के कथन के अनुसार जो तुकांत आपकी रचना में सटीक बैठते हैं उसका निर्णय आपके द्वारा चयनित प्रतीक स्वयं कर देते हैं कि यह तुकांत मुझे चाहिये और मैं एक नूतन बिम्ब बना दूँगा।

Tuesday, December 28, 2021

बिम्ब और प्रतीक की विस्तृत जानकारी परिभाषा, भेद और उदाहरण : संजय कौशिक 'विज्ञात'

संजय कौशिक 'विज्ञात' 
काव्य में बिम्ब क्या होते हैं ? 
बिम्ब शब्द का अर्थ  "मूर्त रूप प्रदान करना" साधारण शब्दों में जहाँ तक मैनें बिम्ब को समझा है उसके अनुसार बिम्ब की व्याख्या इस प्रकार से है- '"काव्य में सटीक बिम्ब के प्रयोग से रचना में अलंकार अनायास ही प्रकट होते चले जाते हैं जिससे काव्य की मूर्ति का शृंगार अत्यंत ही अनुपम सा दिखने लगता है।" नवगीत विधा सहित काव्य की समस्त विधाओं में लेखन से मूर्तीकरण के लिए सटीक बिम्ब योजना होती है।
जबकि डाॅ. देवीशरण रस्तोगी के अनुसार "बिम्ब प्रायः अलंकारों की सहायता लेते और इसी प्रकार अलंकार अन्ततः बिम्ब को ही लक्ष्य करते हैं।"
 बिम्ब एक ऐसे शब्द चित्र को कहा जाता है जो कल्पना के माध्यम से ऐन्द्रिय अनुभवों के आधार पर निर्मित होता है।
बिम्ब- विधान हिन्दी साहित्य में कविता की एक पद्धति है। हिन्दी कविता में जैसे ही विषय बदले, वस्तु बदली और कवि की जीवन को जीने की कला के प्रति दृष्टि बदली वैसे ही शिल्प के क्षेत्र में रूप-विधान के नये आयाम भी विकसित होते आये हैं।
डाॅ. केदारनाथ सिंह के मतानुसार बिम्ब की परिभाषा कुछ इस प्रकार बनके प्रकट होती है  ’बिम्ब यथार्थ का एक सार्थक टुकङा होता है। वह अपनी ध्वनियों और संकेतों से भाषा को अधिक संवेदनशील और पारदर्शी बनाता है। वह अभिधा की अपेक्षा लक्षणा और व्यंजना पर आधारित होता है।"

बिम्ब का प्रयोग साहित्य में प्रारम्भ से होता आ रहा है। प्रतीकों के विपरीत बिम्ब इन्द्रिय-संवेद्य होते हैं। अर्थात् उनकी अनुभूति आँख, कान, नाक तथा जिह्वा आदि किसी न किसी इन्द्रिय से जुड़ी रहती है। इसीलिए साहित्य में हमें दृश्य-बिम्ब के साथ-साथ श्रव्य, घ्राण और स्पर्श-बिम्ब का प्रयोग भी मिलता है। विश्व के परिवेश से रचनाकार कुछ दृश्य, कुछ ध्वनियाँ, कुछ स्थितियाँ उठाता है और अपनी कल्पना, संवेदना, विचार तथा भावना के योग से उन्हें तराश कर बिम्ब का रूप देता है। अपने कथ्य को संक्षेप, सघन रूप में प्रस्तुत करने के लिए, अपनी बात का प्रभाव बढ़ाने के लिए और किसी स्थिति को जीवन्त कर पाठक के सामने रख देने के लिए रचनाकार बिम्बों का प्रयोग करता है।
प्रश्न यह है कि कविता में बिम्बों और प्रतीकों का प्रयोग क्यों आवश्यक है? वस्तुतः बिम्ब और प्रतीक हमें अपनी बात सरलता से और चिर परिचित ढंग से कहने में सहायक होते हैं । यह कविता को अनावश्यक वर्णनात्मकता से बचाते हैं। पाठक पूर्व से ही उस बिम्ब के आंतरिक गुण से परिचित होते हैं इसलिए वे उन बिम्बों के मध्य से कही गयी बात को सरलता से आत्मसात कर लेते हैं । बिम्ब काव्यात्मकता का विशेष गुण है। इसके अभाव में कविता नीरस गद्य की तरह प्रतीत हो सकती है । इसके अलावा बिम्ब कविता को सजीव बनाते हैं, जीवन के विभिन्न आयामों को हम बिम्बों के मध्य से सटीक ढंग से प्रस्तुत कर सकते हैं। साहित्य की भाषा में बिम्ब अनेक प्रकार के बताये गए हैं जिनमे दृश्य, श्रव्य, स्वाद, घ्राण, स्पर्श आदि प्रमुख है, ऐंद्रिकता इनका केन्द्रीय भाव है। 

सी.डी. लेविस के मत से बिम्ब की परिभाषा अलंकृत रूप में कुछ इस प्रकार प्रकट होती है  "काव्य बिम्ब एक ऐसा भावात्मक चित्र है जो रूपक आदि का आधार ग्रहण कर भावनाओं को तीव्र करता हुआ काव्यानुभूति को सादृश्य तक पहुँचाने में समर्थ है।"

वस्तुतः बिम्बों का महत्त्व कवि सदा से स्वीकार करते हैं।  
बिम्ब को पदचित्र, शब्दचित्र और 'मूर्त विधान' भी कहा जाता है। हिंदी के छायावादी कवि परिवार बिम्ब इतने आकर्षक और लुभावने थे कि समस्त विश्व के कवि बिम्ब के मोहिनी पाश के बंधन में बंधते दिखाई देने लगे। छायावाद ही बिम्ब शैली का निर्माण कर्त्ता कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। पाश्चात्य देशों ने भी बिम्ब को 'इमैजियम' नाम से अपनी कविता में प्रयोग किया। फिर तो यह एक आन्दोलन के रूप में चल पड़ा था। प्रायः बिम्ब प्रयोग के तीन प्रमुख तत्व माने जाते हैं-
1 काव्य में वस्तु के संप्रेषण के लिए 
2  ऐसे शब्दों का सर्वथा परिहार जो काव्य को अर्थवान बनाने में योग नहीं देते। 
3 काव्य निर्माण में संगीतात्मक नियम का निर्वाह, अर्थात् उसकी लय को घड़ी के लोलक के नियम से न बाँधना।
प्रेषणगत इन लक्ष्यों के अतिरिक्त काव्य में बिंब ग्रहण की दो मुख्य उपयोगिताएँ होती हैं-

1 इंद्रियगत अनुभव (sensual experience)
2 अलंकृति।
पहले के अंतर्गत पाठक कविता के विविध रूपों से इंद्रियगत अनुभव करता है। यानी आँख, कान, स्पर्श आदि से इंद्रिय बोध करता है। दूसरे के अन्तर्गत बिंब से काव्य सौंदर्य बढ़ता है। इसमें संक्षिप्तता, व्यंजकता और भास्वरता आदि शामिल है। दोनों का लक्ष्य संप्रेषणीयता को बढ़ाना ही है। इसके लिए कवि विशेष भाषा का प्रयोग करता है। शब्दों की जोड़ से बिंब का निर्माण करके वस्तु संप्रेषण करता है।

डाॅ. नगेन्द्र बिम्ब की परिभाषा कुछ इस प्रकार से प्रेषित करते है। जिसने बिम्ब की गुत्थी को और भी सरल कर दिया है 
"काव्य बिम्ब शब्दार्थ के माध्यम से कल्पना द्वारा निर्मित एक ऐसी मानस छवि है जिसके मूल में भाव की प्रेरणा रहती है।"

बिम्ब ग्रहण सरल कार्य भी है और संश्लिष्ट कार्य भी। इसमें कवि की प्रतिभा की अग्नि परीक्षा होती है। संश्लिष्ट होने पर बिंब दुरूह भी हो सकता है। वह भी भाषा प्रयोग का ही परिणाम है।



काव्य में प्रतीक क्या होता है ? 

प्रतीक किसी सूक्ष्म भाव, विचार या अगोचर तत्त्व को साकार करने के लिए प्रयुक्त होता है।जिसका शाब्दिक अर्थ चिह्न कहा जाता है। प्रतीक अप्रस्तुत विषय का प्रतिनिधित्व करने वाले प्रस्तुत विषय को कहा जाता है। पढ़ते अथवा सुनते ही मन में किसी न किसी भावना को जाग्रत कर देने वाले विषय को प्रतीक कहते हैं।
कवि नगेन्द्र के अनुसार ’’उपमान जब किसी पदार्थ विशेष के लिए रुढ़ हो जाता है तब प्रतीक बन जाता है।’’
मेरी एक रचना उल्लाला छंद में देखें काले कृष्ण का प्रतीक है तथा ज्योत्स्ना राधा का प्रतीक है वहीं द्वितीय पद में लता राधा का प्रतीक तो तरुवर कृष्ण का प्रतीक स्पष्ट  होता है पढ़ें इस रचना को और समझने का प्रयास करें ...
*उल्लाला छंद*
लीला रचते काले सदा, नित ज्योत्स्ना के साथ में।
यमुना तट पर लिपटे लता, फिर तरुवर के हाथ में।।
संजय कौशिक 'विज्ञात'

"छंद वर्ण के आँगन गूँजे" संजय कौशिक 'विज्ञात'- आँगन शब्द तथा शिल्प का प्रतीक है और गूँजे लेखन का प्रतीक है। कवयित्री नीतू ठाकुर विदुषी के नवगीत "विदुषी व्यंजना" विदुषी कविता तथा व्यंजना उसमें निहित कथन शक्ति है। कवयित्री अनिता सुधीर आख्या का नवगीत "देहरी फिर गाने लगी" इसमें देहरी के गीत शादी से संबंधित हैं जो उत्सव का प्रतीक है। कवयित्री कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा' का नवगीत "मन की वीणा" में वीणा मधुर संगीत का प्रतीक है और मनसे जुड़ा है तो हर्ष का प्रतीक है। कवयित्री अमिता श्रीवास्तव 'दीक्षा' का नवगीत "द्वार पर दस्तक" यह स्पष्ट रूप से हृदय के द्वार पर उमड़ती भावनाओं का प्रतीक है। कवि परमजीत सिंह कोविद कहलूरी का नवगीत "कोविद गीतांजलि" कोविद अर्थ ज्ञानी और उसके अंजुली भर गीतों की भेंट समर्पण का प्रतीक है। कवयित्री पूनम दुबे 'वीणा' का नवगीत "वीणा के खनकते गीत" में वीणा सुर तथा खनकते गीत लय बद्ध प्रस्तुति का प्रतीक है।

भारतीय साहित्यिक दृष्टिकोण से प्रतीक शब्द शक्ति लक्षणा के विकसित रूप में स्वीकार किया गया है। तथा कुछ विद्वान इसका आविर्भाव  अन्योक्ति अलंकार के रूप में करते हैं। जबकि  आचार्य शुक्ल ने इसे चित्रभाषावाद ही माना है।

प्रतीक के भेद कितने होते है ? 
आइए ये भी जानते है 

प्रतीकों के भेद –


1. भावोत्प्रेरक प्रतीक – पाटल, कमल, सूर्य, चन्द्र, कुमुदिनी, रात की रानी, 

उदाहरण- 

कंटक के आंचल से निकला, 
खिलता सा पाटल हँसता।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'

2. विचारोत्पादक प्रतीक – कैकेई, मंथरा, द्रोपदी, शिखण्डी, परशुराम, भीष्म 

उदाहरण- 

आज जीने के लिये 
इक शिखण्डी चाहिये
मातृ नारी शक्ति का
रूप चण्डी चाहिये

©संजय कौशिक 'विज्ञात'


3 वैयक्तिक प्रतीक – किसी विशेष के संदर्भ को उजागर करते हुए वैयक्तिक प्रतीक कहलाते हैं। जैसे  नलिनी, माली, सैनिक
फूलि-फूलि चुनि लिए, काल हमारी बार।

उदाहरण- 

पीठ टाँग ले बस्ता सैनिक
संबल बन जाएगा मित्र

©संजय कौशिक 'विज्ञात'

4. परम्परागत प्रतीक –  परंपरागत प्रतीक मुहावरेदार सशक्त कथन में प्रयोग होते दिखाई देते हैं जो परम्परा का निर्वहन करते हैं जिनका दृश्य तर्क संगत तो होता ही है साथ ही वह अपने प्रयोग से अपनी उपास्थिति को श्रेष्ठ बनाता है। 

उदाहरण- 

खाट की फिर पांत रोई 
टूट कर उल्टी पड़ी
दे गया है मेढ़ घर का
कष्ट क्रंदन की घड़ी।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'

दीवारों ने कान दे
सुनी सखी की बात।

©अनिता सुधीर 'आख्या'

5. परम्परामुक्त प्रतीक – सर्प, मधुमय बसन्त
 जिन प्रतीकों को नियमित परम्परा से मुक्त पाया जाता है उन्हें परम्परामुक्त प्रतीक कहा जाता है ... कल्पना के माध्यम से परंपराओं का खण्डन करने वाले प्रतीक इस श्रेणी में आते हैं  जैसे सर्प के पंख, दुष्ट साधु जो शब्द परम्परा से हटकर चिह्न बनाता दिखाई दे।

उदाहरण- 

डाल चंदन की पिपासित 
रोटियाँ जलने लगी हैं

©संजय कौशिक 'विज्ञात'

राख से तम  साफ करके 
इक नई आभा दिखेगी l

©संजय कौशिक 'विज्ञात'

पात्र  छलनी हाथ में दे 
क्रूर विधना लूटती सी।

©कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

6. भावपरक प्रतीक – छायावादी प्रतीक

दुष्ट दुशासन हरता अम्बर, 
देख द्रोपदी बिलखे अम्बर।।

कष्ट तड़पता यूँ दम तोड़े।
खण्डित श्वासें भी मुख मोड़े।।
रक्तिम अभिमन्यु पड़ा धरणी 
कालबली के पड़ते कोड़े।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'

तिलमिलाता कष्ट से मन
कँपकँपाते हैं अधर।

©इन्द्राणी साहू 'साँची'

व्याख्यात्मक प्रतीक – जो प्रतीक अपने भीतर रहस्य समाहित किए हुए हों और व्याख्या से समझ आ सकें ऊपर से साधारण दिखने वाले प्रतीक अपने भीतर मर्म समेटे इस श्रेणी में आते हैं जैसे - इंद्रधनुष, गिरगिट, शेर, गीदड़ 

उदाहरण- 

गीदड़ भभकी शत्रु की, 
लगे सर्प फुंकार।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'


प्रतीकपरक प्रतीक – कमल, चाँदनी 

 
डाॅ. रामस्वरूप चतुर्वेदी की इन पांक्तियों के माध्यम से गागर में सागर का परिवेश झलकता है "कविता के लिए शाब्दिक प्रतीक होना एक आधारभूत शर्त है पर हर शाब्दिक प्रतीक कविता नहीं होता।" इसे सदैव स्मरण रखना चाहिए। 

प्रतीक विषय को जितना और जिस प्रकार से मैंने समझा आप सभी के समक्ष सरलता से रख दिया है । विश्वास है आप अब प्रतीक के विषय में अपने ज्ञान को और विस्तृत कर लेंगे।

विषय के आधार पर प्रतीकों के निम्नलिखित भेद हैं-

1 प्राकृतिक प्रतीक
2 पौराणिक प्रतीक
3  पौराणिक प्रतीकों का आधुनिकीकरण
4  रूढ़ प्रतीक
5  नवीन प्रतीक

1 प्राकृतिक प्रतीक-

पंचतत्वों से निर्मित मानव का प्रकृति अभिन्न भाग है। इनका संबंध इतना गहन है की एक दूसरे बिना जीवन की कल्पना करना भी असंभव है। यही कारण है कि प्रकृति का प्रत्येक दुख साहित्यकार को स्वयं का दुख लगता है और बड़ी ही सरलता से प्रकृति से अपने प्रतीक चुनकर सहज ही अपने भावों को अभिव्यक्त कर देता है. प्रकृति से चुने हुए साहित्य में प्रयुक्त प्रतीक ही प्राकृतिक प्रतीक कहलाते हैं जैसे आकाश, सूर्य, धरती, वृक्ष, आदि.

उदाहरण-

लड़ रही नभ के तिमिर से
ये अकेली रात काली

उपर्युक्त पंक्तियों में रात ऐसे स्त्री का प्रतीक है, जो निरंतर परिस्थितियों से संघर्ष करती जा रही है जैसा यहाँ मूर्त के लिये मूर्त प्रतीक का प्रयोग किया गया है.

2 पौराणिक प्रतीक-

पौराणिक प्रतीकों से अभिप्राय ऐसे प्रतीकों से है जो चिरप्रचलित रामायण, महाभारत के पौराणिक आख्यानों को आधार बनाकर साहित्य में प्रयुक्त होते हैं.

उदाहरण-

द्रोपदी की सिसकियों सी 
वेदना है आज की।।

उपर्युक्त पंक्तियों में द्रोपदी के पौराणिक प्रसंग को प्रतीक बनाकर वेदना की तीव्रता को दर्शाने का प्रयास किया गया है। द्रोपदी ने अपने जीवन में जिन परिस्थितियों को देखा और अपमान भरी यातनाओं को सहन किया उसे दुख की पराकाष्ठा कह सकते हैं इसी लिए यहाँ पर उसका प्रयोग कम शब्दों में अपनी बात कहने के लिए उपयुक्त है।

भक्ति का उत्तम उदाहरण
दिख रहा हनुमान जैसा।।  

 उपर्युक्त पंक्तियों भक्ति के उत्कृष्ट उदाहरण हनुमान जी का उल्लेख कर अमूर्त भावों को मूर्त रूप दिया गया है। यह नाम पर्याप्त है किसी भी भक्त की निष्ठा और समर्पण को प्रमाणित करने के लिए।

3 पौराणिक प्रतीकों का आधुनिकीकरण-

आधुनिक साहित्य में पौराणिक प्रतीकों की आधुनिक संदर्भ में नई व्याख्या भी की गयी है।

उदाहरण-

एक ब्रह्मास्त्र बनकर
नित्य कोरोना निगलता।। 

उपर्युक्त पंक्तियों में महाशक्तिशाली ब्रह्मास्त्र का आधुनिकीकरण भीषण रोग कोरोना के रूप में किया गया है। जिस प्रकार ब्रह्मास्त्र का एक प्रहार समस्त सृष्टि का विनाश कर सकता है उसी प्रकार समूचा विश्व इस महामारी के प्रकोप से पीड़ित है जो असंख्य प्राणों की बली ले चुका है।

दैत्य ओमिक्रोन ऐसा 
एक भस्मासुर भयंकर।।

उपर्युक्त पंक्तियों में भस्मासुर का आधुनीकीकरण किया गया है अर्थात् जैसे भस्मासुर के स्पर्श मात्र से व्यक्ति राख में परिवर्तित हो जाता था उसी प्रकार ओमिक्रोन दैत्य सा रूप धारण कर समस्त मानव जाति को राख बनाने का प्रयास कर रहा है।

4 रूढ़ प्रतीक-

कुछ प्रतीक ऐसे हैं जो किसी विशेष अर्थ के लिये रूढ़ हो गये हैं, ऐसे प्रतीक रूढ़ प्रतीक कहलाते हैं.

उदाहरण-

यूँ अदालत गूँजती हैं
इक शपथ बन झूठ गीता।।

गीता ज्ञान, सत्य और धर्म का रूढ़ प्रतीक मानी जाती है जिसका दुरुपयोग आज समाज में दिख रहा है जो समाज की मिटती नैतिकता और संवेदना का प्रतीक है। 

यूँ घरों में गूँजती है
फिर महाभारत पुरानी।।

महाभारत यह शब्द गृह-युद्ध के लिये रूढ़ प्रतीक बन गया है, उपर्युक्त पंक्तियों में इसी रूढ़ प्रतीक का प्रयोग कर के कलह की तीव्रता को दर्शाया गया है।

चीरहरण भी नित्य बिलखते
याद द्रोपदी को करके।। 

महाभारत के बहुचर्चित प्रसंग चीरहरण जो एक रूढ़ प्रतीक माना जाता है उसके माध्यम से समाज में महिलाओं  के साथ घटित हो रहे अपराध के शोक को दर्शा रहा है। जिस प्रकार द्रोपदी ने अपना प्रतिशोध लिया उसी प्रतिशोध की अपेक्षा प्रत्येक चीरहरण को है जो न्याय की आस में बिलख रहा है।


5 नवीन प्रतीक-

नवीन प्रतीक ऐसे प्रतीक हैं, जिनका प्रयोग आधुनिक साहित्य से पहले नहीं हुआ है.

उदाहरण-

काठ की गाड़ी खड़ी
भाव के आभार तक।
ले महक इस मार्ग से
चंद्र के आगार तक।।

उपर्युक्त पंक्तियाँ नूतन प्रतीक कहे जाएंगे क्योंकि इनका प्रयोग आधुनकि साहित्य से पहले नही हुआ है। मानव जीवन को सुखमय बनाने के लिए  नित्य नूतन साधनों की निर्मिति होती रहती है उन्हें भी साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं में स्थान देकर उनकी महत्ता को बढ़ाया है। साधारण सुई से लेकर वैक्सीन तक कुछ भी साहित्य से अछूता नही रहा और उन्हें उपयुक्त स्थान पर प्रतीक के रूप में प्रयोग किया गया।



प्रतीक एवं बिम्ब में क्या अंतर है ?

प्रतीक किसी सूक्ष्म भाव या अगोचर तत्त्व को साकार करने के लिए प्रयुक्त होता है, जबकि बिम्ब किसी पदार्थ की प्रतिकृति या प्रतिच्छवि के लिए प्रयुक्त होता है।


प्रतीक से तुरन्त मन में कोई भावना जाग्रत होती है किन्तु बिम्ब से मस्तिष्क में किसी सादृश्य का चित्र उभरता है।

व्यक्तित्व उपमान जब रूढ़ हो जाते हैं तो वे प्रतीक बन जाते हैं जबकि बिम्ब में नवीनता व ताजगी होती है।

प्रतीक कल्पना द्वारा किसी भावना को जाग्रत करते हैं, जबकि सटीक बिम्ब विधान से प्रमाता को तुरन्त ऐन्द्रिक साक्षात्कार होता है।

प्रतीक में किसी भावना को साकार होने की कल्पना की जाती है जबकि बिम्ब में कार्य का मूर्तिकरण होता है।

प्रतीक में भावना को उत्पन्न या जाग्रत करने की शक्ति होती है जबकि बिम्ब विधान में भावनाओं की उत्तेजित करने की शक्ति होती है।

प्रतीक पर युग, देश, संस्कृति, मान्यताओं की छाप रहती है।



प्रतीक के संदर्भ में कुछ रोचक जानकारी और है  जिसे जान लेना भी अत्यंत आवश्यक है .... 

प्रतीकपूजा का अर्थ
सं-स्त्री. - प्रतीकों की पूजा; लिंगपूजा; मूर्तिपूजा; आध्यात्मिक आस्था के कारण प्रकृति के किसी उपादान की पूजा।

प्रतीकवाद का अर्थ
सं-पु. - अभिव्यंजना की वह विशिष्ट प्रणाली या उससे संबंधित मूल तथा स्थूल सिद्धांत जिसके अनुसार प्रतीकों के आधार पर भावों, वस्तुओं आदि का बोध कराया जाता है; (सिंबलिज़म)।

प्रतीकवादी का अर्थ
वि. - 
1 प्रतीकवाद से संबंधित; प्रतीकवाद का 
2 प्रतीकवाद का अनुयायी, पोषक या समर्थक (व्यक्ति, कलाकार)।

प्रतीकात्मक का अर्थ 
वि. - 
1 जो प्रतीक या प्रतीकों से संबद्ध हो 
2 (साहित्यिक रचना) जिसमें प्रतीकों की सहायता से भावों, वस्तुओं, विषयों आदि का बोध कराया गया हो 
3 नाममात्र का।

प्रतीकात्मकता का अर्थ
सं-स्त्री. - प्रतीकात्मक होने की अवस्था या भाव।

प्रतीकार्थ का अर्थ
सं-पु. - 1 प्रतीक के आधार पर प्राप्त अर्थ 
2 सांकेतिकता 
3 प्रतीकात्मकता। वि. जिसका प्रयोग प्रतीक के रूप में हुआ हो।

प्रतीकोपासन का अर्थ
सं-स्त्री.- 1 देवता का कोई प्रतीक बनाकर उसकी पूजा करना 
2 किसी के प्रतीक की की जाने वाली उपासना 
3 मूर्तिपूजन।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Wednesday, December 22, 2021

नवगीत : नव यौवन की तरूणाई : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत
नव यौवन की तरूणाई
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी ~ 16/14

ढोल थिरकते उर के भीतर 
और गूँजती शहनाई 
हाथों में जयमाल सुगंधित
स्वप्नों ने ली अँगड़ाई।।

भव्य सुसज्जित मण्डप झूमे 
दिव्य चमक ले परकोटे
विद्युत सी उपकरण हँसी ने
मेट दिए दिन के टोटे 
रात्रि चाँदनी लज्जित देखे 
देख धरा भी मुस्काई।।

लोक परी आश्चर्य चकित सा
आकर्षण पर सम्मोहित
कांति चमकती नव्य यौवना
अतिक्रमणमय आरोहित
सुंदरता भी पुंज समेटे 
आज यहीं दिखने आई।।

दिव्य प्रभामय आज अचंभित
श्रेष्ठ लिए आकार खड़ी
मूर्ति ब्रह्म निर्माण कला की
हस्त धार कर हार खड़ी
ओस बूंद से भी उत्तम सी
नव यौवन की तरुणाई।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Monday, December 20, 2021

नवगीत : इक अधूरा गीत उसका : संजय कौशिक 'विज्ञात'



नवगीत
इक अधूरा गीत उसका
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी ~ 14/14

तोड़ कर अनुबंध जीवन
पूर्ण करके श्वास लेटा
इक अधूरा गीत उसका
कोयलों ने यूँ लपेटा।।

क्रूर फंदे काल लेकर
नित्य ही भरमा रहा है
एक अजगर बन डराता 
पाश क्रीड़ा ने कहा है
रिक्त गुब्बारा हवा का 
भर चुका है आज पेटा।।

मृत्यु की ये ओढ़नी भी
पारदर्शी दिख रही है
ओढ़ लेटी देह कबकी 
मौन श्वासों ने कही है
इस धरा की गोद को फिर
व्यंजनाओं ने चपेटा।।

अंत दर्शन चीखता सा
नभ पखेरू छोड़ रोये 
प्रिय मनोहर मीत क्रंदन 
रक्त व्याकुल नेत्र खोये 
देख कर घुट-घुट मरा है
प्राण ने आतंक मेटा।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Sunday, December 19, 2021

निबन्ध कैसे लिखें ? संजय कौशिक 'विज्ञात'



निबन्ध कैसे लिखें ?
संजय कौशिक 'विज्ञात'

निबंध लिखते समय हमारे समक्ष सबसे पहला प्रश्न यही आता है निबंध विधा को लिखते समय हमें किन-किन बातों का ध्यान रखना होता है। आइये जानते हैं निबंध लेखन की सावधानी के मुख्य पक्ष कौन कौन से हैं।  कला पक्ष तथा भाव पक्ष निबंध लेखन के 2 महत्वपूर्ण पक्ष हैं पहले हम जानेंगे कि निबंध के कला पक्ष के विषय में इसमें क्या क्या लिया जाएगा ? 
कला पक्ष - कला पक्ष को सावधानी से लिखते हुए जिन बातों का ध्यान रखना होगा वे इस प्रकार से हैं ... 
1 विषय को बाँधती शब्दावली - शब्दावली विषयानुसार ही प्रयोग होनी चाहिए। 
2 सरल वाक्य - वाक्य की संरचना पर ध्यान देना होगा जो वाक्य जितने सरल होंगे उतने ही प्रभावकारी भी होंगे। 
3 भाषा शैली भावानुकूल- भावों से विपरीत दिशा में प्रयोग की जाने वाली भाषा लेखन को  प्रभावहीन दर्शाएगी अतः जो भावों के अनुकूल हो भावों को शक्ति प्रदान करती हो और भावों को निखारती हो स्पष्ट करती हो निबंध लेखन में इस प्रकार की भाषा शैली ही उत्तम तथा अनुकूल रहती है।
4 विचारों के क्रम तथा क्रमबद्धता - निबंध लेखन में ये सावधानी भी अवश्य रखनी पड़ेगी कि सम्यक विचार प्रवाह क्रमानुसार होना चाहिए उनके क्रमों में बिखराव आया तो निबंध का आकर्षण भी भावों के क्रम के बिखराव के चलते बिखर जाएगा अतः क्रम का हमें विशेष ध्यान रखना पड़ेगा।
5 निबंध की सरलता तथा सजीवता - निबंध लेखन को क्लिष्टता से बचाकर सरल तथा प्रभावी बनाना चाहिए साथ ही इसमें समाहित तथ्य इस प्रकार से स्थापित हों जो इसे सजीव बना कर दर्शाने के लिए पर्याप्त हों अर्थात बोलता हुआ निबंध अपना प्रभाव अलग ही दर्शाता है। 
6 विषयान्तर का त्याग - निबंध लेखन में मुख्य केंद्र बिंदु पर ध्यान केंद्रित रखना आवश्यक है पास पड़ोस के विषय सदैव वर्जित रखने चाहिए। 
7 पुनरावृत्ति का बहिष्कार - किसी पंक्ति में कोई एक कथन अच्छा आ गया है तो उसे बार-बार कहने से बचना चाहिए। पुनरावृत्ति दोष मुक्त लेखन ही प्रभावी लेखन कहा जाता है। 
निबंध लेखन की ये बातें तो हुई कला पक्ष की  

भाव पक्ष - आइये अब जानते हैं निबंध लेखन के द्वितीय पक्ष भाव पक्ष के विषय में ....
1 नूतन विचार - पहले कही हुई बातों को ही दोबारा कहना नव्यता नहीं हो सकती अतः निबंध में जितने नूतन विचार होंगे निबंध उतना ही आकर्षक तथा प्रभावी होगा। 
2 व्यक्तित्व का ठप्पा - निबंध में व्यक्तित्व का ठप्पा अलग से दिखना चाहिए। यह नियम विषय और लेखक दोनों पर ही लागू होता है 
3 मौलिकता - निबंध लेख लेखक का मौलिक लेख होना चाहिए। 
4 प्रभावोत्पादक - निबंध लेख प्रभावोत्पादक बनाने के भी अन्य भाग हो सकते हैं । सच पूछो तो कला और भाव पक्ष भी प्रभावोत्पादक के ही उप शीर्षक हो सकते हैं और इनसे पृथक भी इस विशेष गुण के लिए ही आज इस विशेष विषय का चयन किया गया है। 
5 कल्पना प्रवणता - यथार्थ के साथ-साथ कल्पित भावों की प्रकृति के मिश्रण से ही निबंध असरकारक दिखाई देता है।

निबंध लेख के दोनों पक्षों को हमने जितनी सरलता से समझा है आइये अब उतनी ही सरलता इसके मुख्य चार अंगों को भी समझते हैं 
निबंध के मुख्य चार अंग शीर्षक, प्रस्तावना, विस्तार, उपसंहार आदि निश्चित किए गए हैं। सबसे पहले जानते हैं शीर्षक के विषय में ... 
1 शीर्षक - निबंध का शीर्षक कुछ इस प्रकार से आकर्षक होना चाहिए जिससे पाठक वर्ग में निबंध लेख को पढ़ने की उत्सुकता उत्पन्न हो जाए। 
2 प्रस्तावना - जिस प्रकार से किसी भी भवन का निर्माण कार्य उसकी नींव से प्रारम्भ होता है ठीक उसी प्रकार निबंध लेखन का प्रारम्भ भी प्रस्तावना से ही होता है यही प्रस्तावना भूमिका भी कहलाती है। भूमिका  अत्यंत रोचक और आकर्षक होनी चाहिए परन्तु यह बहुत लम्बी नहीं होनी चाहिए। भूमिका का सार कुछ इस प्रकार की होना चाहिए जो विषयवस्तु की झलक प्रस्तुत करे। 
3 विस्तार - निबंध लेखन के इस अंग को महत्वपूर्ण अंग कहा जाता है जहाँ विचारों का विकास होता है। यह निबंध का सर्व प्रमुख अंश है। इस अंग का संतुलित होना अत्यंत आवश्यक है। क्योंकि इसी अंग में निबंध लेखक विषय के प्रति अपना विशेष दृष्टिकोण प्रकट करता है। 
4 उपसंहार - निबंध की समाप्ति को ही उपसंहार कहा जाता है यह समापन एक निश्चित क्रम तथा आकृति के साथ होता है। इस अंतिम अंग में निबंध लेखक अपना जो भी दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है उसे उपदेश, दूसरे के विचारों को उद्घृत कर या कविता की पंक्ति के माध्यम से निबंध समाप्त कर सकता है।

निबंध क्या है ?
निबंध का अर्थ है विचारपूर्ण लेख। संस्कृत भाषा का यह शब्द जिसका शाब्दिक अर्थ 'संवार कर सीना' ऐसे भी लिया जाता है। जानकारों के हिसाब से प्राचीन काल में हस्तलिखित ग्रंथों को संवार कर लिखा जाता था और इस प्रक्रिया को निबंध कहते थे कालांतर के बाद इसका प्रयोग उन ग्रंथों के लिए होने लगा जिनमें विचारों को बांधा जाता था। निबंध मात्र साहित्यकारों के मन में उठने वाले विचारों की अभिव्यक्ति नही अपितु लेखक के व्यक्तित्व को प्रकाशित करने वाली ललित गद्य-रचना है। निबंध को अंग्रेजी में 'एस्से' कहा जाता है। परंतु इसका रूप इतना विस्तृत है कि उसकी सटीक परिभाषा करना अत्यंत कठिन है। 

बाबू गुलाब राय के अनुसार - "निबंध सीमित आकर वाली वह रचना है जिसमें विषय का प्रतिपादन, निजीपन, स्वच्छता, सौष्ठव, सजीवता एवं आवश्यक संगति तथा संबद्धता के साथ किया जाता है। इन विशेषताओं के अतिरिक्त निबंध में बुद्धि और हॄदय के योग को भी आवश्यक माना गया है।

अच्छे निबंध में निहित महत्वपूर्ण विशेष गुण सर्वविदित हैं जो इस प्रकार से हैं एक अच्छे निबंध में कसावट, प्रभावशाली भाषा, विषयानुकूलता, निबंध में विचार और भाषा दोनों में ही कसावट का गुण होना चाहिए। उद्धरणों की भाषा कभी भी बदलनी नहीं चाहिए। 
निबंध का अर्थ ही है भली भांति बंघा हुआ या कसा हुआ। विराम चिन्हों का समुचित प्रयोग आवश्यक है। विचार बिखरे न हों। चयनित विषय पर चिंतन मनन का लेख ही निबंध है। विचारों में एक शृंखला हो जो क्रमबद्ध हो। विचारों में संतुलन हो अर्थात् प्रमुख बातों पर अधिक महत्व एवं गौण बातों को कम महत्व देना चाहिए। निबंध स्पष्ट होना चाहिए। निबंध में बदलती हुई विषय-सामग्री के अनुसार पैरे बदलने चाहिए। 

निबंध कितने प्रकार के होते हैं ?
आइये अब जानते हैं सबसे अहम बात कि निबंध कितने प्रकार के होते हैं निबंध के प्रकार के हैं- 
वर्णनात्मक निबंध, विवरणात्मक निबंध, भावात्मक निबंध, साहित्यिक या आलोनात्मक निबंध 
1 वर्णनात्मक निबंध - इन निबन्धों में निरूपण अथवा व्याख्या की प्रधानता रहती है। विभिन्न प्रकार के दृश्यों, घटनाओं तथा स्थलों का आकर्षक वर्णन करना ही इन निबन्धों का कलेवर - विषयवस्तु होता है। इन निबन्धों की अन्य विशेषता यह है कि- यहाँ प्राय: प्रत्येक निबंधकार अपने निबंध में एक सजीव-चित्र उपस्थित करता है। तीर्थ, यात्रा, नगर, दृश्य-वर्णन, पर्व-त्यौहार, मेले-तमाशे, दर्शनीय-स्थल आदि का मनोरम एवं संश्लिष्ट वर्णन करना ही निबंधकार का प्रमुख उद्देश्य होता है। इनमें लेखक प्रकृति और मानव-जगत् में से किसी से भी विषय चयन कर सर्वसाधारण के लिए निबंध-रचना करता है। 
2 विवरणात्मक निबंध - विवरणात्मक निबन्धों में कल्पना एवं अनुभव की प्रधानता होती है। साथ ही इस वर्ग के निबन्धों में वर्णन के साथ-साथ विवरण की प्रवृत्ति भी विद्यमान रहती है। इन्हें कथात्मक अथवा आख्यानात्मक निबंध भी कहा जाता है। विवरणात्मक-निबन्धों की विषयवस्तु मुख्यत: जीवनी, कथाएँ, घटनाएँ, पुरातत्त्व, इतिहास, अन्वेषण, आखेट, युद्ध आदि विषयों पर आधृत होती है। ये निबंध ‘व्यास-शैली’ में लिखे जाते हैं। 
3 भावात्मक निबंध - भावात्मक-निबन्धों में बुद्धि की अपेक्षा रागवृत्ति की प्रधानता रहती है। इनका सीधा सम्बन्ध ‘हृदय’ से होता है। अनुभूति, मनोवेग अथवा भावों की अतिशय अभिव्यंजना इन निबन्धों में द्रष्टव्य है। इन निबन्धों में निबंधकार सहृदयता, ममता, प्रेम, करुणा, दया आदि भावनाओं से युक्त व्यवहार को प्रकट करता है।
4 साहित्यिक या आलोनात्मक निबंध - किसी साहित्यकार, साहित्यिक विधा या साहित्यिक प्रवृत्ति पर लिखा गया निबंध साहित्यिक या आलोचनात्मक निबंध कहलाता है, जैसे मुंशी प्रेमचंद, तुलसीदास, आधुनिक हिन्दी कविता, छायावाद हिन्दी साहित्य का स्वर्णयुग आदि। इसमें ललित निबंध भी आते हैं। इनकी भाषा काव्यात्मक और रसात्मक होती है। ऐसे निबंध शोध पत्र के रूप में अधिक लिखे जाते हैं।

हिंदी निंबध साहित्य को निम्नलिखित भागों में विभाजित किया जाता है -
भारतेंदुयुगीन निबंध, द्विवेदीयुगीन निबंध, शुक्लयुगीन निबंध, शुक्लयुगोत्तर निबंध एवं, सामयिक निबंध-1940 से अब तक जो निबंध लिखे जा रहे हैं ललित निबंध के विषय में रमेशचंद्र शाह ने कहा है कि "ललित निबंध वस्तुतः आत्मनिबंध हैं" वहीं निबंध का इतिहास खोजने का प्रयास किया जाता है तब हमारे समक्ष "हिंदी के प्रथम निबंध के रूप में राजा भोज का सपना (1839 ई.) का उल्लेख मिलता है।" लगभग 180 वर्ष पुराना इतिहास मिला है। "सदासुखलाल के ’सुरासुरनिर्णय’ के आधार पर इन्हें हिंदी का प्रथम निबंधकार माना जाता है।" निबंध का एक और रूप "प्रतापनारायण मिश्र के निबंधों के रूप में प्रकट होता है जिनमें हास्य, व्यंग्य, चुहलबाजी, चुटकी, आक्षेप, हार्दिकता का अद्भुत पुट विद्यमान है। प्रतापनारायण मिश्र के निबंध फक्कङपन एवं हास-परिहास से परिपूर्ण है।" निबंध विधा को देखते हुए जब और आगे बढ़ते हैं तब हम देख और समझ पाते हैं कि "बालमुकुन्द गुप्त भारतेन्दु और द्विवेदी युग के बीच की महत्त्वपूर्ण कङी है, जिनके पत्रात्मक-शैली के निबंधों में व्यंग्य की मार है। शिवशंभु के चिट्ठे ’भारतमित्र’ में 1904-05 ई. में प्रकाशित हुए थे, जो लार्ड कर्जन को लेकर लिखे गये थे।"
"चंद्रधर शर्मा ’गुलेरी’ ने इतिहास, संस्कृति, पुरातत्त्व, भाषा इत्यादि पर गवेषणात्मक निबंध लिखे हैं।" जबकि एक और दृष्टिकोण से हम पाते हैं कि "भारतेन्दु-युग के बहुचर्चित निबंधों में कालिदास की सभा (बालकृष्ण भट्ट), स्वर्ग की विचार सभा (भारतेन्दु), यमलोक की यात्रा (स्वप्न-शैली में राधाचरण गोस्वामी द्वारा रचित), भारतखंड की समृद्धि (लाला श्रीनिवास ) इत्यादि है।" 

क्या निबंध में तत्व भी होते हैं?
जी हाँ जिस प्रकार से मानव जीवन के लिए आवश्यक पाँच तत्व हैं ठीक उसी प्रकार निबंध के लिए भी इसके तत्व आवश्यक हैं एक निबंध में मुख्य रूप से 3 तत्व होते हैं जो इस प्रकार के बताए गए हैं 
1 लेखक का व्यक्तित्व - निबंध विधा में निबंध लेखक की विचारधारा और उसके व्यक्तित्व की झलक का दर्पण कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। 
2 वैचारिक और भावनात्मक आधार - निबंध विचारों और भावों के समूह का वह वर्ग है जो अपने भीतर से शीर्षक से संबंधित विचारों और भावों का शीतल मनोहारी झरना सा बहा कर उसमें स्नान करने वाले पाठक की आत्मा तक आहट दे सके। 
3 भाषा शैली - सरल सरस प्रवाहपूर्ण होनी चाहिए। जिससे पाठक को पढ़ने में आनंद प्राप्त हो वह मध्य में छोड़ कर अगले निबंध पर जब तक न जाये जब तक उपसंहार से परिचित न हो जाये।
इन तीनों की परिभाषा भिन्न - भिन्न हो सकती है परंतु उद्देश्य स्पष्ट है कि निबंध विधा को साहित्यिक दृष्टिकोण से शुद्ध लिखा जा सके ...

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Saturday, December 18, 2021

नवगीत : सुन हॄदय स्पंदन गमकता : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत 
सुन हॄदय स्पंदन गमकता
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी 14/14

क्षण बहक कर थक चुका सा
स्मृति गहन दे और पहरा
इक प्रतीक्षा नित निभाए
आस पर विश्वास गहरा।।

भाग्य का हिस्सा तिमिरमय
रात्रि से लड़ ऊब बैठा
श्रेष्ठ योद्धा शौर्य थामें 
धड़कनों पर खूब बैठा 
वाद्य वीणा सुर थिरकता
फिर अखण्डित रूप ठहरा।।

मांग ले सिंदूर भरती
नेत्र ने काजल सजाई 
रक्तिमा अनुपम अधर की 
कुमुदिनी देखे लजाई
सुन हृदय स्पंदन गमकता
स्वांग करता कर्ण बहरा।।

कोकिला की तान हँसती
रातरानी मुस्कुराई 
चाँदनी छिटकी धरा पर
उर्मियों ने दी बधाई
आ गई स्वर्णिम रजत सी
यूँ मिलन की रात्रि लहरा।।

#संजयकौशिक'विज्ञात'

Friday, December 17, 2021

नवगीत : पुस्तकों पर मौन पसरा : संजय कौशिक 'विज्ञात'



नवगीत 
पुस्तकों पर मौन पसरा
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी - 14/14 

पुस्तकों पर मौन पसरा
कर रहा इतिहास क्रंदन
सभ्यता संस्कृति बिलखती 
रक्त रंजित शिष्ट वंदन।।

शौर्य स्वर्णिम पूर्वजों का
कठपुतलियाँ बोलती हैं
भित्ति चित्रों का अमर रस
पुस्तकें पय घोलती हैं
पावनी गंगा नयन भर
मांगती है मोक्ष चंदन।।

बंद गत्ते पुस्तकों ने
ज्ञान अन्तस् तक उड़ेला 
पृष्ठ खुलकर नम्रता दे
पा सके सम्मान चेला
रूप विद्या स्पष्ट देकर 
यूँ बनाती श्रेष्ठ नंदन।।

कुछ कलंकित सी हवाएँ 
दे मुखौटा धूल जाती 
और एकाकी तड़पता 
कष्ट सब पुस्तक मिटाती
गीत स्मृति यूँ दौड़ आई
दे हृदय को तीव्र स्पंदन।।

#संजयकौशिक'विज्ञात'

Thursday, December 16, 2021

नवगीत : पंछी से बतियाती है : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत 
पंछी से बतियाती है 
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी - 16/14

विरह वेदना अन्तस् दहके 
पंछी से बतियाती है
सावन में परदेश पिया की
ऐसे याद सताती है।।

पंख बिना बन स्वप्न परिंदा
अम्बर तक ज्यूँ सैर करे
पंख यथार्थ जुड़ें जो तन भी
सोचे उच्च उड़ान भरे
और पिया की भूली नगरी 
पल भर में मिल जाती है।।

दृश्य बिना ये चित्त तड़पता
शोर हवा का कानों में 
सिरहन सुर अन्तस् तक गूँजे
सरगम जैसे खानों में
कोयल भी फिर मीठे सुर में
गीत उसी के गाती है।

दूर पपीहा कष्ट सुनाए
सुनकर आँखें भर आई
हस्त ढाँपते मुख मण्डल को
नेत्र छिपाती तरुणाई
असहजता ओझल सी होकर
भाव नया भर लाती है।।

#संजयकौशिक'विज्ञात'

Wednesday, December 15, 2021

नवगीत : दायज : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत 
दायज 
संजय कौशिक 'विज्ञात' 

मापनी 16/14

शोर दहेज करे नित भारी
लूट लिया जग सारे को
नव्य विवाहित आहत बहुएँ 
बिलखें एक सहारे को।।

अग्नि हवन क्रव्याद भूमिका 
आज निभा कर माच रही 
योजक गुण गठजोड़ा मिथ्या 
आग लालची नाच रही 
फेरे ले दायज फिर बाँधे
मंगलसूत्र पियारे को।।

कन्यादान दहेज प्रथा ने
शोषण करके घात रची 
मान प्रतिष्ठा मद ने मारी 
झूठ अहम सी बात बची
कट जाते फिर समधी समधन 
काट न पाए आरे को।।

प्रीत मिलन सम खीर मधुर सी
हितकर ये सबसे प्यारी
नूण दहेज हरण कर खुशियाँ 
खो देता रंगत सारी 
रोता आज समाज सकल है 
मीठे कम इस खारे को

#संजयकौशिक'विज्ञात'

Monday, December 13, 2021

नवगीत : दीनता की पीपनी : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत 
दीनता की पीपनी
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी स्थाई/पूरक पंक्ति 14/12
                            अंतरा 14/14

धोबियों के घाट नाचें
नित वसन की ताल पर
दीनता की पीपनी सी
बज रही हर गाल पर।।

प्याज की महँगी प्रथाएँ
मेंहदी को यूँ रुलाती
रोटियाँ चटनी नहीं हैं
पेट को भूखा सुलाती
भूख दुल्हन भी विदाई 
चाहती हर हाल पर।।

झूठ परिणय सूत्र दिखता
स्वप्न कब देखे हठीली
जो हवन वेदी बना है 
आँख उसकी देख गीली
तेल चढ़ता बान बैठी
दीनता इस साल पर।।

काज धंधे मिट चुके हैं
मौन शहनाई बताती
कष्ट की बारात दर पर 
गौरवा कर पूर्ण आती
और दायज राज माँगे
धोबियों के माल पर।।

#संजयकौशिक'विज्ञात'

Sunday, December 12, 2021

संस्मरण कैसे लिखें ? : संजय कौशिक 'विज्ञात'



संस्मरण कैसे लिखें ? 
संजय कौशिक 'विज्ञात'

यदि यह प्रश्न मन में उठ रहा है तो विस्तृत जानकारी के लिए पूरी पोस्ट पढ़ें।

संस्मरण:- 
संस्मरण साहित्यिक विधा की परिभाषा इतनी ही समझें कि इस विधा में में कल्पना अथवा अनुभूति का कोई स्थान नहीं होता। कल्पना का समावेश होते ही संस्मरण साहित्यिक विधा अपने मूल केंद्र से भटक कर नष्ट हो जाती है। अतः इस विधा के मूल केंद्र बिंदु का सौंदर्य और आकर्षण भूतकाल की यथार्थ स्मृति पर ही निखरता है। इसमें भूतकाल की उन्हीं घटनाओं की चर्चा होती है जो जीवन में घट चुकी हैं, यथार्थ हैं तथा प्रामाणिक हैं।

संस्मरण का मुख्य केंद्र बिंदु वैयक्तिकता माना जाता है। इसके बिना संस्मरण का लेखन असम्भव कहा जाता है। संस्मरण विधा में लेखक के द्वारा उसके अपने जीवन की उस घटना का वर्णन किया जाता है जिस घटना को वह लिखने के समय तक भुला नहीं पाया है। जो आज भी उसके मन तथा मस्तिष्क में तरोताजा है और संस्मरण लेखक घटना को ज्यों की त्यों अपने लेख में उकेर कर पाठक के समक्ष प्रस्तुत करता है। पाठक द्वारा उस घटना को पढ़कर उस घटना से जुड़ाव अनुभव करता है। 

वैयक्तिकता को स्पष्ट करती हुई "रामवृक्ष बेनीपुरी" की ’माटी की मूरतें’ नामक पुस्तक में इसी ओर संकेत किया है। उनके अपने शब्दों में, ’’हजारीबाग सेन्ट्रल जेल के एकान्त जीवन में अचानक मेरे गाँव और मेरे ननिहाल के कुछ लोगों की मूरतें मेरी आँखों के सामने आकर नाचने और मेरी कलम से चित्रण की याचना करने लगी।

उनकी इस याचना में कुछ ऐसा जोर था कि अन्ततः यह ’माटी की मूरतें’ तैयार होकर रही। हाँ, जेल में रहने के कारण बेजमासा भी इनकी पाँत में आ बैठे और अपनी मूरत मुझसे गढ़वा ली।’’ इस प्रकार यह स्पष्ट है कि वैयक्तिकता संस्मरण विधा का एक महत्वपूर्ण उपकरण है।

संस्मरण साहित्यिक विधा की विशेषता यह है कि यह विधा बहुत ही लचकदार है। इसके तत्त्व और गुण अन्य अनेक विधाओं में मिलते जुलते हैं। जैसे रेखाचित्र, जीवनी, रिपोर्ताज आदि विधाओं और संस्मरण को एक समझा जाता रहा है। संस्मरण और रेखाचित्र विधा एक-दूसरे के साथ कई समानताओं में इस तरह जुड़ी हुई हैं कि एक-दूसरी विधा के अंतर को पाट पाना सरल कार्य नहीं लगता। महादेवी वर्मा जी की ‘स्मृति की रेखाएं’ इसका ज्वलंत उदहारण है। ‘स्मृति’ शब्द जहाँ उस कृति को संस्मरण की ओर ले जा रहा है वहीं ‘रेखाएं’ रेखाचित्र विधा की ओर .... संस्मरण तथा रेखाचित्र की साहित्यिक विधा के अंतर के विषय में प्रसिद्ध साहित्यकार महादेवी वर्मा जी ने स्वयं कहा था कि 
"संस्मरण’ को मैं रेखाचित्र से भिन्न साहित्यिक विधा मानती हूँ। मेरे विचार में यह अन्तर अधिक न होने पर भी इतना अवश्य है कि हम दोनों को पहचान सकें।"
मानव जीवन को प्रभावित तथा आकर्षक लगने वाले आचरित आदर्श जो पाठक को प्रभावित कर सकते हैं। आशा-निराशा, जय-पराजय, सुख-दुख के अनेक क्षण जिन्हें निकट से देखने तथा समझने पर जीवनव्यापी प्रभाव छोड़ने में सक्षम हों उनके सम्बन्धों में साहित्यिक भाषा में लेखन ही साहित्यकार को एक विशिष्ट स्थान तथा दृश्य बोध देता है।

संस्मरण विधा कम औपचारिक, अधिकतर अनुकूल कार्य लेखन की विधा है जो सटीक और तथ्यों पर आधारित विवरण को धारण करने वाली है। यह विधा कल्पना तथा संरचना रहित है अर्थात "संस्मरण विधा किसी भी बिंदु से प्रारम्भ हो सकती है।"

हम जब संस्मरण विधा के विषय में विस्तार से जानने का प्रयास करते हैं तब यह जान पाते हैं कि संस्मरण-लेखन हमें मुख्यतया दो रूपों में प्राप्त होते हैं- इसका प्रथम रूप यह है जिसमें लेखक दूसरों के विषय में लिखता है तथा द्वितीय रूप ऐसा है जिसमें वह स्वयं अपने विषय में लिखता है। प्रथम प्रकार के लेखन को रेमिनिसेंस कहते हैं। और दूसरे प्रकार के लेखन को मेमोयर। यद्यपि मेमोयर में लेखक अपने बारे में लिखता है, किन्तु यह साहित्यिक विधा आत्मकथा अर्थात जीवनी से सर्वथा भिन्न ही रहती है। यह भिन्नता आकारमय न होकर तत्वमय होती है।

हिन्दी भाषा के संस्मरण लेखकों ने स्वीकार भी किया है कि उनके स्मृति चित्रों में उनके जीवन-सूत्र भी अनुस्यूत है। उदाहरण के लिए महादेवी वर्मा ने इस सम्बन्ध में लिखा है कि 
’’इस स्मृतियों में मेरा जीवन भी आ गया है। यह स्वाभाविक भी था।"

जिस विषय, घटना तथा व्यक्ति का संस्मरण लिखा जाना है वो घटना अथवा विषय भी प्रेरक प्रसंग कर रूप में अवश्य होना चाहिए जिसके कारण हमारे जीवन में परिवर्तन आ सका है उस घटना को पाठक पढ़ें तो वे भी उस परिवर्तन के क्षण से जुड़ सकें। 
"कुछ संस्मरण स्तरीय नहीं देखे जाते लेखक अपनी महानता सिद्ध करने के लिए लिखते हैं कि लेखक ने किसी भिखारी को 100 रु की भीख दी और स्वयं को कर्ण बताने जैसा"
वो गौरव गाथा हो सकती है या किसी बड़े कार्य की शुरुवात पर एक बार का सहयोग और आजीवन दान पुण्य त्यागना उत्तम संस्मरण हो सकता है क्या इसका निर्णय लेखक और पाठक स्वयं करें ... 

डाॅ० शान्ति खन्ना संस्मरण को परिभाषित कुछ इस प्रकार करते हैं ’’जब लेखक अतीत की अनन्त स्मृतियों में से कुछ रमणीय अनुभूतियों को अपनी कोमल कल्पना से अनुरंजित कर व्यंजनामूलक संकेत शैली में अपने व्यक्तित्व की विशेषताओं से विशिष्ट कर रमणीय एवं प्रभावशाली रूप से वर्णन करता है, तब उसे संस्मरण कहते है।’’
सभी के जीवन में अनेक घटना ऐसी घटित होती हैं कि वे लेखन की प्रेरणा स्वयं देती हैं। उन्हें पृष्ठों पर जब उकेरा जाता है उसी दिन से उनकी कालजयी होने की यात्रा प्रारम्भ हो जाती है। कारण वे रचना लेख आदि लिखे ही इतने मन से जाते हैं लेखक लिखते समय उनमें डूबकर लिखता है परिणाम स्वरूप पाठक उन गहराइयों में डूब भी न पाए तो तट बड़े ही रमणीय, लुभावन तथा आकर्षक होते हैं। 

डाॅ० शिवप्रसाद सिंह ने संस्मरण विधा की परिभाषा कुछ नये ढंग से की है 
’’संस्मरण ललित निबन्ध का बहुत ही लोकप्रिय प्रकार है। बीते काल और घटना को बार-बार दुहाकर न सिर्फ मनुष्य संतोष पाता है, बल्कि वह अपने वातावरण में घटित समसामयिकता की अतीत के चित्रों से तुलना करके अपने को जाँचता-बदलता रहता है। संस्मरणात्मक निबन्ध मुख्य तथा महान व्यक्तियों के सानिध्य में अपने को तथा समाज को रखकर देखने की नई दृष्टि देते है।’’
निःसन्देह पुराने लिखे हुए को पुनः अपने नाम से प्रकाशित करने से कभी रचनाकार का धर्म नहीं निभाया जा सकता। 

बाबू गुलाबराय संस्मरण विधा लेखन के लिए प्रेरित करते हुए संस्मरण विधा के स्वरूप को कुछ इस प्रकार से प्रतिपादित करते हैं 
’’वे (संस्मरण) प्रायः घटनात्मक होते हैं, किन्तु वे घटनाएँ सत्य होती है और साथ ही चरित्र की परिचायक भी उनमें थोङा सा चटपटेपन का भी आकर्षण होता है। संस्मरण चरित्र के किसी एक पहलू की झाँकी देते है।’’

डाॅ० गोविन्द 'त्रिगुणायत' संस्मरण की परिभाषा कुछ इस प्रकार अभिव्यक्त करते हैं 
’’भावुक कलाकार जब अतीत की अनन्त स्मृतियों में से कुछ रमणीय अनुभूतियों को अपनी कोमल कल्पना से अनुरंजित कर व्यंजनामूलक शैली में अपने व्यक्तित्व की विशेषताओं से विशिष्ट कर रोचक ढंग से यथार्थ रूप से प्रस्तुत कर देता है, तब उसे संस्मरण कहते हैं।’’
संस्मरण पढ़कर इस संस्मरण से जुड़े पात्रों के व्यक्तित्व के विषय में समझने तथा उनके प्रति निर्णय लेने की स्वतंत्रता पाठक के पास स्वयं की होती है.... पाठक के लिए कल्पना के माध्यम से अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनते हुए अधिक बढ़ा चढ़ा कर वर्णन किया जाएगा जो यथार्थ से परे हो तो ऐसे में पाठक समझ लेता है कि संस्मरण में कहाँ-कहाँ कल्पना का प्रयोग किया गया है कारण कल्पना के आते ही यथार्थ की पटड़ी से उतर जाएगी संस्मरण की लोहपथगामिनी जो पाठक और दर्शक को कभी भी आकर्षित नहीं कर सकती। अतः अपने विषय में बताने की आवश्यकता नही होती कि आप कितने महान हैं।
संस्मरण विधा के विषय में विस्तार से समझ चुके हैं आइये अब संस्मरण विधा की मुख्य विशेषताएँ एक बार पुनः स्मरण कर लेते हैं :-
संस्मरण लेखक के स्मृति पटल पर अंकित किसी विशिष्ट व्यक्ति के जीवन की घटना का विवरण है। संस्मरण यथार्थ का दर्पण होता है। संस्मरण संक्षिप्त रूप होता है। संस्मरण किसी महापुरुष या विशिष्ट घटना से संबंधित होता है।

संस्मरण लेखन का प्रयास कर रहे सभी लेखक साहित्यिक भाषा का प्रयोग करते हुए यदि इन बातों का ध्यान रखेंगे तो उनके संस्मरण स्तरीयता अवश्य प्राप्त करेंगे। 

#संजयकौशिक'विज्ञात'

नवगीत : निर्धनता यूँ रोती है : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत 
निर्धनता यूँ रोती है
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी 16/14

चूल्हे चिमटे क्रंदन करते
धैर्य कड़ाही खोती है
भूख तड़पती हर घर आँगन
निर्धनता यूँ रोती है।।

दबे टीकड़े कुछ भुभळ में
स्तब्ध खड़ा हारा चीखे
दो जून कहीं खोई रोटी 
भाग्य कहीं खोए दीखे 
दलिया की डलिया भी रीती
पीर उसे भी होती है।।

चाक कहें विस्मित चाकी से
बिन गेहूँ के क्या पीसें
और तवा कह अन्तस् जलता
पल-पल बढ़ती हिय चीसें।
रिक्त पड़ा आटे का पीपा 
ऐसे रोटी पोती है।।

घर आँगन के नीम पुराने 
काट रही नित नव आरी
मर्यादित दृढ़ भीतें तोड़ी
मार सभ्यता पर मारी
नग्न विवश ये कंचन काया
काग चुने पर मोती है।।

#संजयकौशिक'विज्ञात'

Friday, December 10, 2021

नवगीत : अनकहे वो शब्द बोले : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत 
अनकहे वो शब्द बोले
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी- मुखड़ा/पूरक पंक्ति 14/14
            अन्तरा 14/12

स्वप्न पर दृग काव्य लिखते
अनकहे वे शब्द बोले
व्यंजना का हिय तिरस्कृत
घाव से लेकर फफोले।।

इस पलक की लेखनी ने 
रस व्यथा का कह दिया
आह फिर स्याही भरे जब
सह करुणता का लिया
भीड़ भारी सी उमड़ती
पुतलियाँ उसको टटोले।।

काव्य अनुपम आँख गढ़ती
कोर विस्मित रह गई
भाव भर झरना बहा जब
आँख अपनी कह गई
फिर अलंकरणों बिना ही
रो पड़े भौं के खटोले।।

शब्द नूतन जड़ दिए यूँ
नेत्र ने कविता रची 
स्वप्न टूटा तिलमिलाए 
शब्द बिन कविता पची
पंक्तियाँ दृग की सुलझती
छंद के बहते चमोले।।

शब्दार्थ 
फफोले - त्वचा के जलने पर पड़नेवाला छाला जैसे—फफोला पड़ना
टटोले - स्पर्श करके ढूँढने की स्थिति 
गढ़ती - निर्मित करती
खटोले - खाट का छोटा रूप 
चमोले - हास्यास्पद बातें

#संजयकौशिक'विज्ञात'

Thursday, December 9, 2021

नवगीत : नव्यता नवगीत पनपे : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत 
नव्यता नवगीत पनपे
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी - 14/14

नव्यता नवगीत पनपे
लेखनी फिर झूम नाचे
छंद नूतन अर्थ गहरे
मापनी भी खूब माचे।।

तेग नंगी चाल दुष्कर 
और ठहरी ये दुधारी
छंद लिखना कब सहज है
भाव काटे एक आरी
शिल्प मर्यादा कठिन कुछ
मेटते ये शब्द खाचे।।

ये मनोरम बिम्ब चमके
बोलते से नित कथाएँ
व्यंजना की ढाल लेकर 
यूँ व्यथित हैं सब व्यथाएँ
तथ्य ले संकेत निखरे
काटते हैं देख काचे।।

लय मधुर मनभावनी सी
गेयता के राग पाती
सुप्त से अंतःकरण में
झनझनाहट सी जगाती
ताल सुर संगीत लेकर
नव्यता नवगीत बाचे।।

खाचे - कीचड़
बाचे - पढ़ कर बोलना 
काचे - आनंद 
माचे - प्रफुल्लित होना 
नाचे - नाचना 

#संजयकौशिक'विज्ञात'

Thursday, November 25, 2021

नवगीत : शब्दशक्ति : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत
शब्दशक्ति
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी ~14/12

सप्त सुर में गूँजती सी
काव्य की अनुपम छटा
नौ रसों के भाव नूतन
यौवना बाँधे जटा।।

तुक वसन तन पर निखरता
कामनी सी दंग करती
बिन तुकों की धार लज्जा
ओढ़नी सिर ओढ़ मरती
शब्द से शृंगार लेकर
अर्थ की उलझी लटा।।

ले गणित का ज्ञान गहरा
श्रेष्ठ विद्योत्मा यही है
हारते काली जहाँ पर 
बात विदुषी सी कही है
छंद लेखन झट निभाये
शिल्प है ऐसा रटा।।

चित्र यूँ हितकर उकेरे
बिम्ब की अनुपालना से
दोष सारे लक्षणा के
छानती है छालना से
व्यंजना की ये तपस्या
शक्ति रखती जो सटा।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Wednesday, November 24, 2021

नवगीत : पर्वतों से आह निकली : संजय कौशिक विज्ञात



नवगीत
पर्वतों से आह निकली
संजय कौशिक विज्ञात

मापनी ~ 14/14

पीर के ज्वालामुखी को
देखकर चट्टान पिघली
आँसुओं सी बह गई जब
पर्वतों से आह निकली।।

घात दे आकृति धुँए की
नेत्र भी बहने लगे फिर
दूर हट जा मत तड़प दे
बात वो कहने लगे फिर
ढूँढते ढाँढस फिरे जब 
प्राप्त होते आम इमली।।

शांत वो गरजा गगन भी
धीर बाँधे मेघ न्यारी
पीठ में अपनत्व की यूँ 
देख लंबी सी कटारी
रक्त की बहती नदी सी
हर्ष की यूँ प्यास निगली।।

फट गया धरणी ह्रदय यूँ
आस की हर डोर टूटी
और अन्तस् को व्यथित कर
जब हृदय की कोर लूटी
चंद्र तारे सौर मण्डल
मिल बुझाते आग पिछली।।

संजय कौशिक विज्ञात

नवगीत : पनघटों के गीत प्यारे : संजय कौशिक 'विज्ञात'



नवगीत
पनघटों के गीत प्यारे
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी ~ 14/14
पाखियों की चहचहाहट
पनघटों के गीत प्यारे
उस रहट की तान गूँजे
तितलियों के राग न्यारे।।

कामिनी की दोघड़ों ने
धार जीवन की भरी जब
ढोल चुपके से मिला यूँ
माट ले सिर पर धरी जब
धुन बजा कर राग उत्तम
तू पुनः आना पुकारे।।

पाँव पनिहारिन धरे यूँ
देह लेकर फिर लरजती
दो घड़ों का भार तन पर 
चाल उसकी और जमती
भोर लाली वारती सी
यूँ ठहरती सी निहारे।।

हर्ष घड़ियाँ प्रिय लगी यूँ
और आकर्षण निखरता
कर चला नभ और वंदन
जब उजाला सा बिखरता
कुछ भ्रमर जब झूमते से
तब चले गा बाग द्वारे।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Saturday, November 6, 2021

नवगीत : पीर अन्तस् की उगलती : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत
पीर अन्तस् की उगलती 
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी ~14/14

पीर अन्तस् की उगलती 
काँच की चूड़ी चटक से
ये विरह का ज्वारभाटा
घोर तड़पन की खनक से।।

मेंहदी का रंग फीका
यूँ महावर खो चुका अब।
पायलें हो त्रस्त रोई
हर्ष चहुँ दिश का रुका जब।
आज गर्दन भी अकड़ के
यूँ व्यथित सी है चनक से।।

भाव गढ़ते मूर्ति बोले
वो कला भी शांत दिखती
मौन हैं छीनी हथौड़ी
धार से जो क्लांत दिखती
भीग कर आँखें ठहरती
रूप दर्शन की खटक से।।

आग ज्यूँ ज्वालामुखी की
यूँ दहकती बढ़ रही सी
वेदना की लौ भड़कती
कुछ अखरती चढ़ रही सी
हिय नहीं संतुष्टि पाये
दूर प्रिय की इक झलक से।।


संजय कौशिक 'विज्ञात'

Sunday, October 24, 2021

नवगीत : समरसता संदेश : संजय कौशिक 'विज्ञात'

नवगीत
समरसता संदेश
संजय कौशिक 'विज्ञात'


मापनी~ 16/14

समरसता संदेश तिरंगा
लेकर तन पर चलता है
भारत का अनुपम यह चोला
अनुपमता पर खिलता है।।

शेर हिरण जब एक घाट पर
रह कर के जल पीते हैं
रामराज्य के स्वप्न फलित हो 
दृश्य रूप में जीते हैं
पल-पल के ये बिम्ब निखरते
दर्पण दिखते रीते हैं
इंद्रधनुष के आकर्षण को
रूप हमारा छलता है।।

धन निर्धन की गहरी खाई
भामाशाहों ने पाटी
राज्य लुटा कर अपना स्वर्णिम
खाक गली की नित चाटी
अंग राज ने कुंडल देकर 
फिर निज छाती भी काटी
समरस बनकर रक्त नसों में
गंगा सा बन पलता है।।

सीख पुराणों से नित लेकर
समरसता को पढ़ना है
श्रेष्ठ प्रकृति है मार्ग प्रदर्शक
पग-पग हिम पर चढ़ना है
लालच और विकार सभी से
बचकर आगे बढ़ना है
गढ़ना है हर तालमेल यूँ 
समरस में जो ढलता है।।

धर्म हाट के बाजारों को
मिलकर बंद कराना है
सुप्त विवेक जगा कर अपना
हमको आगे आना है 
एक सूत्र का श्रेष्ठ तिरंगा
धार हृदय में गाना है
जलने दो रिपुओं को धुन से
समरस पर जो जलता है।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'

Wednesday, October 13, 2021

नवरात्रि पर नवदुर्गा विशेष कुण्डलियाँ : संजय कौशिक 'विज्ञात'

नवरात्रि पर नवदुर्गा विशेष कुण्डलियाँ
संजय कौशिक 'विज्ञात'



शैलपुत्री



मैया को सादर नमन, करता जन-जन आज।
मातृ शैलपुत्री सदा, करती मंगल काज।।
करती मंगल काज, भक्ति भक्तों की बनकर।
शक्ति प्रथम यह आदि, खड़ी ममता सी तनकर।।
कह कौशिक कविराय, नहीं डूबेगी नैया।
रक्षक जग की देख, बने केवट भी मैया।।



ब्रह्मचारिणी



देती उत्तम युक्ति की, हितकारी माँ राह।
ब्रह्मचारिणी सब कहें, करती नेह अथाह।।
करती नेह अथाह, शक्ति संयम गुण भरती।
निर्भय कर संतुष्टि, भक्त को मैया वरती।
कह कौशिक कविराय, तमोगुण माँ हर लेती।
ब्रह्मचारिणी रूप, बना उत्तमता देती।।


चंद्रघंटा


पूरी हो हर कामना, चल मैया के द्वार।
मात चंद्रघंटा करे, निज भक्तों से प्यार।।
निज भक्तों से प्यार, हरे वो बाधा सारी।
मिटते ग्रह के दोष, कुंडली चमके न्यारी।।
कह कौशिक कविराय, बुरी लत से रख दूरी।
साधक बनके पूज, सभी इच्छा हों पूरी।।




कुष्मांडा



धारण कर अमरित कलश, रूप स्वर्ण सा पीत।
कुष्मांडा ब्रह्माण्ड की, नवल सृजन की रीत।।
नवल सृजन की रीत, सभी शस्त्रों से शोभित।
यश बल दे ऐश्वर्य, करे भक्तों का माँ हित।।
कह 'कौशिक' कविराय, चराचर जग के कारण।
आदि शक्ति का रूप, सदा करती माँ धारण।।



स्कंदमाता



होकर शेर सवार माँ, हर लेती जो ताप।
देख स्कंदमाता यही, सदा मिटाती पाप।।
सदा मिटाती पाप, मोक्ष माँ उनको देती।
साधक साधें योग, प्रभा बन चमके रेती।।
कह कौशिक कविराय, कालिमा हिय की धोकर।
धर मैया का ध्यान, दास चरणों का होकर।।




कात्यायनी



दानव का मर्दन किया, महिषासुर का अंत।
ये वो माँ कात्यायनी, भजते योगी संत।।
भजते योगी संत, उबारे जग सारे को।
छू सकता है कौन, भला ऐसे पारे को।।
कह कौशिक कविराय, सुनो हे कलि के मानव।
रक्षक माँ है शक्ति, डरें जिनसे हर दानव।।



कालरात्री


खोले इस दिन नेत्र माँ, दृष्टिपात का रूप।
श्रेष्ठ कालरात्री लगे, सुंदर दृश्य अनूप।।
सुंदर दृश्य अनूप, नष्ट रिपुओं को करती।
मन इच्छित वरदान, सदा साधक को वरती।।
कह कौशिक कविराय, उपासक जै जै बोले।
निर्भय सब संतुष्ट, भाग्य के ताले खोले।।



उत्तम माँ की भक्ति है, उत्तम माँ की शक्ति।
देख कालरात्री खड़ी, धारे काल विरक्ति।।
धारे काल विरक्ति, तामसिक बाधा घटती।
तन की व्याधि अनेक, शुभंकारी से हटती।।
कह कौशिक कविराय, रूप रहता ये सप्तम।
अग्नि जंतु जल शत्रु, भागते डर के उत्तम।।



महागौरी




ममता रूप अनूप है, भुक्ति-मुक्ति का गीत।
दिव्य महागौरी यही, उज्ज्वलता की रीत।।
उज्ज्वलता की रीत, चमकता है मुख मण्डल।
अभय सदा दे हाथ, नेह का भरा कमण्डल।।
कह कौशिक कविराय, मंगला देती समता।
हरती भव भय ताप, लुटाकर अपनी ममता।।



सिद्धिदात्री


वेदों ने महिमा कही, कहते सभी पुराण।
श्रेष्ठ सिद्धिदात्री यही, मिलते उचित प्रमाण।।
मिलते उचित प्रमाण, भक्ति करनी सिखलाते।
माँ के गौरव गान, हृदय में नित बस जाते।।
सुन कौशिक कविराय, सुनाये नौ भेदों ने।
मैया के नौ रूप, बताए इन वेदों ने।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'

Monday, September 27, 2021

कह मुकरी : संजय कौशिक 'विज्ञात'

कह मुकरी 
संजय कौशिक 'विज्ञात'

शिल्प विधान 
कह मुकरी विधान

      कह मुकरी काव्य की एक पुरानी परन्तु बहुत आकर्षक विधा है। यह चार पंक्तियों की कविता है। इस विधा में दो सखियाँ परस्पर वार्तालाप करती हुई दर्शाई जाती हैं। जिसकी प्रथम 3 पंक्तियों में पहली सखी अपनी दूसरी अंतरंग सखी से अपने साजन के विषय में अपने मन की कोई बात कहती है। परन्तु यह बात कुछ इस प्रकार कही जाती है कि अन्य किसी बिम्ब पर भी सटीक बैठ सकती है। जब दूसरी सखी उससे यह पूछती है कि क्या वह अपने साजन के बारे में बतला रही है, तब पहली सखी लज्जित सी चौथी पंक्ति के दूसरे हिस्से में अपनी कही हुई बात से मुकरती हुई कहती है कि नहीं वह तो किसी दूसरी वस्तु के बारे में कह रही थी।

        यह छंद 16 मात्रिक चौपाई वाले विधान पर ही निर्मित होता है। 16 मात्राओं की लय, तुकांतता और संरचना बिल्कुल चौपाई जैसी होती है। पहली एवम् दूसरी पंक्ति में सखी अपने साजन के लक्षणों से मिलती जुलती बात कहती है। तीसरी पंक्ति में स्थिति लगभग साफ़ पर फिर भी सन्देह जैसे कि कोई पहेली हो। चतुर्थ पंक्ति में पहला भाग 8 मात्रिक जिसमें सखी अपना सन्देह पूछती है यानि कि प्रश्नवाचक होता है और दुसरे भाग में (यह भी 8 मात्राओं) में स्थिति को स्पष्ट करते हुए पहली सखी द्वारा उत्तर दिया जाता है।

हर पंक्ति 16 मात्रा, अंत में 1111 या 211 या 112 या 22 होना चाहिए। इसमें कहीं कहीं 15 या 17 मात्रा का प्रयोग भी देखने में आता है। न की जगह ना शब्द इस्तेमाल किया जाता है या नहिं भी लिख सकते हैं। सखी को सखि लिखा जाता है।

        अंतिम बिम्ब दृश्य बिम्ब होने से मुकरी का अर्थ स्पष्ट प्रमाणित भी होता है और मुकरी का उद्देश्य भी सार्थक प्रतीत होता है।

       इस विधा में योगदान देने में अमीर खुसरो एवम् भारतेंदु हरिश्चन्द्र जैसे साहित्यकारों के नाम प्रमुख हैं ।

विज्ञात की कह-मुकरी


बिम्ब बनाया उसने प्यारा।
लगता है जो सबसे न्यारा।
प्यारी सी छवि हिय पर उकरी।
क्या सखि साजन! ना कह-मुकरी।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'



खूब चलाता उसकी चलती।
बात भला कब उसकी टलती।।
कुछ बातों से है वो खोटा।
हे सखि साजन! ना सखि लोटा।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'



एक हिमालय सा जो तपता।
सिंधु लहर ज्यूँ वो नित जपता।
शौर्य बना है उसका वल्कल।
हे सखि साजन! ना सखि वाष्कल।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'




वो बाह्यान्तर श्रेष्ठ सुगंधित।
विश्व सकल में नित है चर्चित
एक लगे ना हे सखि अटकल।
क्या सखि साजन! ना सखि पाटल।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'



पतझड़ का हो जैसे पत्ता।
और उड़ाता मक्खी छत्ता।
सुलग रहा पर लगता प्यारा।
हे सखि साजन! ना सखि हारा।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'


नदियों की धारा से खेले।
बहते झरने कितने चेले।
दम्भ मिटा भरते हैं गागर।
हे सखि साजन! ना सखि सागर।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'


गर्म हवाओं ने झकझोरा।
तान रहा है जब वो बोरा।
शीतलता का सीखा आसन।
हे सखि साजन! ना सखि बासन।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'


द्रवित नेत्र का वो ही कारक।
हास्य बना दे ऐसा मारक
भाग्य सराहे मेरे बाँटे।
क्या सखि साजन! ना सखि काँटे।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'


सन्नाटों ने जिसको चीरा।
फिर भी दिखता वो है धीरा।
पल- पल उसको देता टाकी।
क्या सखि साजन, ना एकाकी।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'


मेरे वे अपने से दिखते।
मैं उनको वे मुझको लिखते।
नित्य रात भर वे फिर काटे।
क्या सखि साजन! ना सन्नाटे।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'


मुरली गूँजे ढपली बजती।
रागों की कुछ सरगम सजती।
ताल बजाता बन पूरबला।
क्या सखि साजन, ना सखि तबला।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'


हाथ पकड़ घर मे ले जाती।
सेवा करती नेह जताती।
चाय पिलाती मधुकर प्याली।
क्या प्रिय सजनी, ना प्रिय साली।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'


इठलाता है वो बल खाता।
मेरा उससे मीठा नाता।
लाता है वो मेरा पीजा।
क्या सखि साजन! ना सखि जीजा।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'


क्षमा याचना नित ही मांगे।
तोड़े मन इच्छा से टांगे। 
वही मिटाये हिय का प्यार।
क्या सखि साजन ? ना  सरकार।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'



अधर सुर्ख से नेत्र पिपासित।
नाक जँचे शुक सी आकर्षित।
सुंदरता की वो है पुड़िया।
हे सखि सौतन ? ना सखि गुड़िया।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'




मौन शिथिल सा देख खड़ा है।
बंद अधर या बंध जड़ा है।
उसका है उर में सम्मान।
क्या सखि साजन ? ना उद्यान।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'




श्वेत वर्ण की सुंदर काया।
देख जिसे अन्तस् हर्षाया।
गाती वो मेरा हर गान।
क्या प्रिय सजनी ? ना चट्टान।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'




चिकना है वो मीठा मीठा।
चमक रहा जैसे ये रीठा।
कहता उसको कोई कलुवा।
हे सखि साजन ? ना सखि हलुवा।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'




खिला खिला सा प्यारा लगता।
श्वेत रंग का पल-पल ठगता।
ऐसा सुंदर उसका गात।
हे सखि साजन ? ना सखि भात।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'




सही समय पर जो दिख जाती।
रूठे मन को वो हर्षाती।
हर उलझन का श्रेष्ठ उपाय।
क्या प्रिय सजनी ? ना प्रिय चाय।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'




हो कितने दुख हँसता मिलता।
देख उसे मन उपवन खिलता।
स्पर्श उसी का चाहूँ पल-पल
हे सखि साजन ? ना सखि पाटल।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'




रोटी जब रोटी को खाती।
दुबली कुछ मोटी हो जाती।
इस भारत की वही कहानी।
हे सखि नेता ? न राजधानी।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'




हुडदंगों की ऐसी होली।
रंग अबीरी संध्या डोली।
वो छाती पर लगती प्यारी।
क्या प्रिय गोरी ? ना पिचकारी।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'




अर्ध कलश वो सिर पर लेकर।
सम्मोहित करता कुछ देकर।
उसका तीर नहीं है तुक्का।
क्या सखि साजन ? ना सखि हुक्का।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'



तोल तराजू रोटी बाँटे।
झुकते उठते उसके काँटे।
बनता है वो न्यायिक सा नर।
हे सखि साजन ? ना सखि वानर।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'





मार चुकी है वो तो कितने।
गिने नहीं जा सकते इतने।
उससे डरती सारी दिल्ली।
हे सखि सौतन ? ना सखि बिल्ली।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'




हरा भरा कुछ पीला दिखता।
जीवन की श्वासों को लिखता।
अधरों का वो है मिष्ठान।
हे सखि साजन ? ना सखि धान।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'


कह मुकरी

उसका रूप विचित्र निराला।
इतना मोटा काला-काला।
उसको देख काँपता दर्प।
हे सखि साजन ? ना सखि सर्प।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'


भावों की ये महके धरणी।
डूब सके कब तैरे तरणी।
शक्ति सदा देती वो रविता।
क्या प्रिय सजनी ? ना प्रिय कविता।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'


चील समान दिखे वह नारी।
काली ही दृष्टि रही सारी।
बातें उसकी रहती सनदी।
हे सखि सौतन ? ना सखि ननदी।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'


शब्द वाक्य का रस बन जाता।
कुनबे का यूँ साथ निभाता।
दिखता वो जैसे हो सेठ।
हे सखि साजन ? ना सखि जेठ।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'


नहले पर दहले की बारी।
पीर गुलाम सहे फिर सारी।
वो राजा बन माँगे पानी।
हे सखि इक्का ? ना सखि रानी।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'


बाहर भीतर भटके जाती।
मोड़-तोड़ लो लटके जाती।
बजती है उसकी नित पुंगी।
हे सखि सौतन ? ना सखि लुंगी।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'




सरपट दौड़े सबसे आगे।
तेज और तेजी से भागे।
मारे उसका टैम्पो चाटा।
हे सखि साजन ? ना सखि टाटा।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'


दर्जन बालक पैदा करती।
गली-गली में मारी फिरती।
डूब गई है उसकी लुटिया।
हे सखि सौतन ? ना सखि कुतिया।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'




गुज्जर की घरवाली बोले।
मस्त पवन जब बहकी डोले।
महक रहा वो बनके इत्र। 
हे सखि साजन ? ना सखि मित्र।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'



उसको ही गोदी ले खेले।
मेल मिलाए जिनसे मेले।
उसे रुलाये बाल विवाह।
हे सखि साजन ? ना सखि दाह ।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'


जब बालक से फिर गठ जोड़ा।
पहली चूड़ी को ना फोड़ा।
नित्य रुलाये उस को आह।
हे सखि साजन ? ना बहु ब्याह।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'


टुकुर-टुकुर वे ऐसे देखे।
पढ़ लेते हैं सारे लेखे।
खोल उड़ें वे अपनी पाँखें।
क्या सखि साजन ? ना सखि आँखें।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'



देखूं मुख में पानी आये।
मेरे मन को यूँ ललचाये।
दिखने में वो हट्टा-कट्टा।
हे सखि साजन ? ना सखि खट्टा।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'



दूर बहुत जब पग हूँ चलती।
उसकी छाया पल-पल छलती।
दुख दे वो उल्लू का पट्ठा।
हे सखि साजन ? ना सखि गट्ठा।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'



गीत सुरीला उसका बजता।
पूजा करती जब वो सजता।
गोल-गोल रखता वो अंटा।
हे सखि साजन ? ना सखि घंटा।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'


पनघट पर मैं जब नित जाती।
सखियाँ सारी गीत सुनाती।
उसके सिर पर मढ़ती टंटा।
हे सखि साजन ? ना सखि बंटा।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'


वेणी सी वो लेती लटका।
आकर्षक उसका ये झटका।
चाळा की वो दिखती घूंटी।
हे सखि सासू, ना सखि खूंटी।।

© संजय कौशिक 'विज्ञात'



भरी पोटली जल की धारा।
भर लाया हो सागर सारा।
देख खड़ा वो बनकर बंबू।
हे सखि साजन ? ना सखि नींबू।।

© संजय कौशिक 'विज्ञात'




जो भी दे दूँ सब ले-लेता।
स्वयं नहीं फिर वापिस देता।
करता है वो पल-पल चाळा।
हे सखि साजन ? ना सखि आळा।।

© संजय कौशिक 'विज्ञात'



यौवन रग-रग से यूँ दमके।
रक्त वर्ण से लगते चमके।
और दिखे वो जैसे हो बम।
हे सखि साजन ? ना सखि कोकम।।

© संजय कौशिक 'विज्ञात'





पीत वर्ण की स्वर्णिम काया।
वृक्ष तले फिर बैठा पाया।
अधर कहें वो दिखते ही चख।
हे सखि साजन ? ना सखि अमरख।।

© संजय कौशिक 'विज्ञात'




अपने गुण का वो है राजा।
और बजे नित उसका बाजा।
कुटता-पिटता वो ज्यूँ अभ्रक।
हे सखि साजन ? ना सखि अदरक।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'




च्यूंटी काटी, वसन उतारे।
श्वेत अंग सब प्यारे प्यारे।
लाती उसको हाथों से चुन।
हे सखि साजन ? ना सखि लहसुन।।

© संजय कौशिक 'विज्ञात'




रिक्त सदा मुख जिसका पाए।
देखूँ मुझको खटका जाए।
दिखता वो भारी सा गैंडा।
हे सखि साजन ? ना सखि पैंडा।।

© संजय कौशिक 'विज्ञात'




बातों की वो खाल उतारे।
व्यंग्य खरा सा नित ही मारे।
कर लेती है वो यूँ अनबन।
हे सखि सौतन ? ना सखि समधन।।

© संजय कौशिक 'विज्ञात'




दृग कोरों में बसता अंजन।
स्वप्न सदा रह जाता गंजन।
सदा वही फिर जाता छोड़।
हे सखि साजन ? ना सखि मोड़।।

© संजय कौशिक 'विज्ञात'



कार्य सभी मन चाहे करता।
उल्टा जल नदिया में भरता।
दिखता वो सूखा सा लक्कड़।
हे सखि साजन ? ना सखि फक्कड़।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'




कितने प्यारे गुण वो प्यारा।
कहते हैं जग से जो न्यारा।
शुद्ध बना दिखता वो सारस।
हे सखि साजन ? ना सखि पारस।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'



आगंतुक के कष्ट मिटाए।
सारा निज धन स्वयं लुटाए।
उसका मन है पावन निर्मल।
हे सखि साजन ? ना गंगा जल।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'



बैठ वहाँ फिर सूटा मारा।
देख अलौकिक बोल पुकारा।
और अचानक फिर वो भागा।
हे सखि साजन ? ना सखि नागा।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'



जो आता वो धोक लगाता।
भूल नहीं फिर कोई पाता।
रूप दिखे उसका है बड्डा।
हे सखि साजन ? ना सखि गड्डा।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'




सुरसा मुख सा बढ़ता जाए।
वो अपना अस्तित्व दिखाए।
उसने सारा काज बिगाड़ा।
हे सखि साजन ? ना सखि भाड़ा।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'


श्रमिक बना सब कारज करता।
भोर काल में पानी भरता।
दिखती आँखें वो कब सोई
हे सखि साजन ? ना ननदोई।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'



काली ऐनक भूरे मुख पे।
मैं चिंतित हूँ उसके दुख पे।
एक आँख से वो है काणी।
हे सखि सासू ? ना ! जेठाणी।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'



आते-जाते को वो रोके।
भार अधिक हो तो यूँ टोके।
नोट छापता उसका डाका।
हे सखि साजन ? ना सखि नाका।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'


अनुपम प्रिय आकर्षण उत्तम।
मधुर बोल में रस है सत्तम।
दृश्य बिम्ब वो अद्भुत चुलबुल।
हे सखि साजन ? ना सखि बुलबुल।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'



पैरों में सूजन दिखलाती।
भारी पग संकेत बताती।
बात सदा कहती वो सुल्टी।
हे सखि सासू ? ना सखि उल्टी।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'



दांडी वाला नृत्य रचाया।
तन को पूरा लाल बनाया।
नित्य चिढ़ाये उसे अबीर।
हे सखि साजन ? ना सखि पीर।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'



गोल-गोल आकार लिये है।
अद्भुत सा व्यवहार लिये है।
तोड़-हाड़ वो जाता खेलन।
हे सखि साजन ? ना सखि बेलन।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'



सोने का आकार लिये है।
पित्तल का व्यवहार लिये है।
लाखों का है उसका ये मन।
हे सखि साजन ? ना सखि निर्धन।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'



दिन भर कितना बोझ उठाता।
बुग्गी को भी नित्य चलाता।
पूर्ण काम का उसका कोटा।
हे सखि साजन ? ना सखि झोटा।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'


हाड़ चमकते दुर्बल काया।
पात्र दया की रचती माया।
दिखती वो सूखी सी पटड़ी।
हे सखि सासू ? ना सखि कटड़ी।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'


भाप क्रोध की उफने जाती।
गीत द्वेष के भी कब गाती।
चाल चले वो आंडी-बांडी।
हे सखि सासू ? ना सखि मांडी।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'


ये आधार सुना बन जाती।
थपकी के बिन सदा सुलाती।
बने राबड़ी की वो दस्सी।
हे सखि सौतन ? ना सखि लस्सी।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'


चुटकी भर ही नेह जताए।
और हृदय में फिर घुल जाए।
मिटा पिपासित दे वो पीरा।
हे सखि साजन ? ना जलजीरा।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'




सार वेद का सदा सुनाता।
सबके मन को वो है भाता।
उसकी बातें सबने मानी।
हे सखि साजन ? ना सखि ज्ञानी।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'




सूर्य तपिश का बरसे सावन।
जेष्ठ मास लगता मन भावन।
भले हुआ वो तप के तापड़।
हे सखि साजन ? ना सखि पापड़।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'



बहुत प्रेम से नित सहलाए।
सीधा करती जब बल खाए।
उलझ गया वो सारा देश।
हे सखि साजन ? ना सखि केश।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'




भीतर जाकर पट को खोला।
मौन शब्द से सबकुछ बोला।
आज उठी हिय उसकी हूक।
हे सखि साजन ? ना संदूक।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'




चिकनी देह चमकती काया।
पकड़ूँ उसको मन में आया।
लुढ़क गया वो आँगन कूद।
हे सखि साजन ? ना अमरूद।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'




अटक गया कैसे क्या बोलूँ।
राज भला अब फिर क्या खोलूँ।
उसके आगे सब कुछ फीका।
हे सखि साजन ? ना सखि टीका।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'




पूर्ण विश्व ये है आकर्षित।
सकल सृष्टि में है यूँ चर्चित।
उसकी भाषा चमके हिंदी।
हे सखि साजन ? ना सखि बिंदी।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'




कब छोटा कब गुरु बन जाता।
गूढ़ रहस्य मुझे ना भाता।
समझ सके कब वो मति मंद।
हे सखि साजन ? ना सखि छंद।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'




जो कह दूँ वो बातें माने।
अब कब जाती हूँ समझाने।
बिंध लिया है जब उसका मन।
हे सखि साजन ? ना सखि यौवन।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'



योग भोग है वहम बताए।
सृष्टि चराचर तो भटकाए।
उसके हिय में बसे उदासी।
हे सखि साजन ? ना सन्यासी।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'



कच्चेपन का ये डर रहता।
जब सहलाऊँ आता बहता।
उलझ चले पर वो बन ऊत।
हे सखि साजन ? ना सखि सूत।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'




भार बहुत वो तन को तोड़े।
मुड़े नहीं कोई भी मोड़े।
लाख सँभालूँ उसकी चूक।
हे सखि साजन ? ना बंदूक।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'




जोर लगाकर ऐसा पटका।
पटका बैठे देखा झटका।
झटका उसे गया वो दौड़।
हे सखि साजन ? ना सखि मौड़।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'




वही चलाता है ये गाड़ी।
बात उलझती की है झाड़ी।
नित्य बढ़ाये वो निज मोल।
हे सखि साजन ? ना पैट्रोल।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'




रूप बदलता नित प्रति अपना।
कठिन बहुत रूपों को जपना।
कड़ुवा सा है उसका ये छल।
हे सखि साजन ? ना सखि डीजल।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'





हाथ हिले कब पाँव हिलाती।
और बैठ आदेश चलाती।
भरी हवा की वो प्यारी धुन।
हे सखि मरियल ? ना सखि टुनटुन।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'




कुटे-पिटे तब सीधा होता।
वरना दिखता अड़ियल खोता।
सुनती उसकी हूँ नित गूँज।
हे सखि साजन ? ना सखि मूँज।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'




भारी भरकम पेठे जैसा।
सदा लुढ़कता बिल्कुल वैसा।
उसकी चमड़ी जाती सूज।
हे सखि साजन ? ना तरबूज।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'




जोर लगाकर पकड़ रगड़ती।
घिसती उसको नहीं झगड़ती।
और पुनः वो माँगे खट्टा।
हे सखि साजन ? ना सिलबट्टा।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'




रंग अलग है चिकना मोटा।
चमके जैसे नूतन लोटा।
और करे वो झट आलिंगन।
हे सखि साजन ? ना सखि बैंगन।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'




हास्य सभ्य सा करे ठिठोली।
और पहेली की है गोली।
कहें लोग वो दिखती फुकरी।
हे सखि सौतन ? ना कह मुकरी।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'




सर्प समान चले बल खाकर।
भावों की वेणी लटका कर।
लोग कहें उसको अब रुक री।
हे सखि तुमको ? ना कह मुकरी।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'





मुकर गई है अपनी कहके।
भावों को जो फिर से गहके।
सखी कहें उसको कुछ झुक री।
हे सखि सासू ? ना कह मुकरी।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'



एक कलम ने तोड़ लिखाया।
काव्य विधा का जोड़ बताया।
उसकी उसमें आती धात।
हे सखि कविता ? ना विज्ञात।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'


पर्व दिवाली सा बन जाता।
घर में जब नूतन जन आता।
उस पर और विशेष प्रलाभी।
हे सखि साजन ? ना सखि भाभी।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'



घात यही वो पलटे वाणी।
और छुड़ा दे अपनी ढाणी।
तन-मन करदे वो पाषाण।
हे सखि साजन ? ना सखि बाण।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'


सदा उसे ही चाहे ये मन।
और नहीं चाहे कोई धन।
मांगे नित वो एक अनार।
हे सखि साजन ? ना बीमार।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'



लटक झटक कर कदम बढ़ाये।
और शंख सा पुनः बजाये।
अनुपम उसका लगता खेल।
हे सखि साजन ? ना सखि रेल।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'




शब्द तोलने सभी सिखाये।
भाव हृदय में तब जँच पाये।
सीख रही हैं उसकी हितकर।
हे सखि साजन ? ना सखि गुरुवर।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'


देख लहर फौरन उठ जाता।
और हार कर बैठा पाता।
उसका भरना है बस चर्चा।
हे सखि साजन ? ना मत पर्चा।।

@ संजय कौशिक 'विज्ञात'



खड़ा हुआ जब सरपट चलता।
चिकना मटका पल-पल छलता।
वो यमुना ले जाए काशी।
हे सखि साजन ? ना प्रत्याशी।।

@ संजय कौशिक 'विज्ञात'




उठे झुके फिर से पड़ जाता।
इससे ज्यादा कुछ ना आता।
काम यही है उसका माड़ा।
हे सखि साजन ? ना सखि गाड़ा।।

@ संजय कौशिक 'विज्ञात'




आलिंगन में रखे समेटे।
भर दे जो कम्पन के पेटे।
वो सर्दी का प्यारा तोड़।
हे सखि साजन ? ना सखि सोड़।।

@ संजय कौशिक 'विज्ञात'





फूलों जैसा अद्भुत चमके।
और अकेला प्यारा दमके।
चढ़ ऊपर वो लगता साफ।
हे सखि साजन ? न सखि लिहाफ।।

@ संजय कौशिक 'विज्ञात'




चिकना-चिकना वो ललकारे।
युद्ध क्षेत्र की बाट निहारे।
रोता है वो खाकर पंजा।
हे सखि साजन ? ना सखि गंजा।।

@ संजय कौशिक 'विज्ञात'




पूरी नरम मुलायम दिखती।
भूल वही ये कविता लिखती।
खटक बढ़ाता उसकी नूण।
हे सखि साजन ? ना सखि मूण।।

@ संजय कौशिक 'विज्ञात'



बहुत मनोरंजन सा करती।
अश्रु बहाकर ठुमके भरती।
दिखती वो मुख से अक्षेत्री।
हे सखि सासू ? ना अभिनेत्री।।

@ संजय कौशिक 'विज्ञात'




बाहर भीतर का दुख सुलझे।
नहीं किसी से भी यूँ उलझे।
वो सिखलाये नव्य प्रयोग।
हे सखि साजन ? ना उद्योग।।

@ संजय कौशिक 'विज्ञात'



निश्छल से जो भाव सजाए।
और उन्हें अपना कह जाए।
वो पावन सी एक पवित्री।
हे सखि सासू ? ना कवयित्री।।

@ संजय कौशिक 'विज्ञात'