नवगीत
दीनता की पीपनी
संजय कौशिक 'विज्ञात'
मापनी स्थाई/पूरक पंक्ति 14/12
अंतरा 14/14
धोबियों के घाट नाचें
नित वसन की ताल पर
दीनता की पीपनी सी
बज रही हर गाल पर।।
प्याज की महँगी प्रथाएँ
मेंहदी को यूँ रुलाती
रोटियाँ चटनी नहीं हैं
पेट को भूखा सुलाती
भूख दुल्हन भी विदाई
चाहती हर हाल पर।।
झूठ परिणय सूत्र दिखता
स्वप्न कब देखे हठीली
जो हवन वेदी बना है
आँख उसकी देख गीली
तेल चढ़ता बान बैठी
दीनता इस साल पर।।
काज धंधे मिट चुके हैं
मौन शहनाई बताती
कष्ट की बारात दर पर
गौरवा कर पूर्ण आती
और दायज राज माँगे
धोबियों के माल पर।।
#संजयकौशिक'विज्ञात'
बहुत ही सुंदर करुण रस से भरपूर नवगीत 👌
ReplyDeleteशानदार सृजन की ढेर सारी बधाई 💐💐💐
वाह वाह 👌 सुंदर सृजन 👌
ReplyDeleteनमन गुरु देव 🙏💐
बहुत ही सुन्दर नवगीत और शब्द बिम्ब अति सुन्दर मनमोहक पूरा दृश्य नजर आने लगा शानदार बहुत। बधाई आपको नमन वंदन आपको 👌👌👌👌🙏🙏🙏🙏
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर सृजन आ.गुरुदेव जी
ReplyDeleteवाह बहुत खूब । सुंदर और सटीक रचना । नमन गुरुदेव ।
ReplyDeleteदीनता को अनेक बेहतरीन बिम्बों से सजाकर लिखा हुआ एक मार्मिक एवं शानदार नवगीत 👌🙏
ReplyDeleteबहुत खूब, सादर नमन गुरुदेव
ReplyDeleteबहुत खूब और मार्मिकता से परिपूर्णतम रचना ।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteबहुत ही मर्मस्पर्शी नवगीत👏👏👏👏👏👏
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर लेखनी
ReplyDelete