नवगीत
आज पुकार स्वतंत्र दिवस की,
संजय कौशिक 'विज्ञात'
मापनी ~ 16/14
आज पुकार स्वतंत्र दिवस की,
श्रेष्ठ दिनांक यहाँ रोये।
कुंभकर्ण सी निद्रा में अब,
अच्छे दिन फिर हैं सोये।।
चीखे अंतिम अंत्येष्टि जहाँ,
शव के दावानल चीखें।
धार मुखौटे अत्याचारी,
संत बने खींचे लीखें।।
लोभ शिखा की दहके ज्वाला,
नेता जी अपने खोये।
कुंभकर्ण सी निद्रा में अब,
अच्छे दिन फिर हैं सोये।।
औषधि हन्ता केंद्र बने हैं,
किसने निर्मम घात करी।
चिंतन भी छोड़ा वर्षों ने,
सत्ता के मुँह दाल भरी।।
होली दीवाली भी सिसके,
बंधन राखी ही ढोये।
कुंभकर्ण सी निद्रा में अब,
अच्छे दिन फिर हैं सोये।।
अपनी रेलें बंद पड़ी हैं,
स्वप्न बुलेट दिखा देते।
शब्द बाग कब सिंचित करने,
जब चाहो महका लेते।।
बात निरर्थक सुनलो सारी,
चिह्न कालिमा के धोये।
कुंभकर्ण सी निद्रा में अब,
अच्छे दिन फिर हैं सोये।।
लहरों की फिर आड़ खड़ी सी,
मानवता का वध करती।
सरकारों को कुर्सी प्यारी,
जो बस डींगें ही भरती।।
काटेंगे ये उपज वही फिर,
बीज जहाँ जैसे बोये।
कुंभकर्ण सी निद्रा में अब,
अच्छे दिन फिर हैं सोये।।
मँहगाई का डंका बजता,
रोटी अपना दुख रोती।
दिखती फिर दिव्यांग सब्जियाँ,
रोग भरी जो नित होती।।
चटनी का भी स्वाद गया अब,
व्यंजन पूछें सुन ओये।
कुंभकर्ण सी निद्रा में अब,
अच्छे दिन फिर हैं सोये।।
साधन और प्रसाधन रचकर,
चेतन मन को लुब्ध किया।
चोट करारी उसपे मारी,
जनता ने विष तीव्र पिया।।
द्वार खड़े हैं दिन ये कैसे ?
रक्त चाप से नित छोये।
कुंभकर्ण सी निद्रा में अब,
अच्छे दिन फिर हैं सोये।।
आत्म हुतात्मी रैली निकली,
प्राप्त हुआ तब ये अवसर।
खण्डित हैं मर्यादा सारी,
भक्षक धर्म खड़ा तनकर।।
और स्वतंत्र दिवस का क्रंदन,
पीड़ा अन्तस् में झोये।
कुंभकर्ण सी निद्रा में अब,
अच्छे दिन फिर हैं सोये।।
©संजय कौशिक 'विज्ञात'