Tuesday, August 31, 2021

नवगीत : निर्धन से आँसू : संजय कौशिक 'विज्ञात'




निर्धन से आँसू
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी~16/16

निर्धन से आँसूं चीत्कारे
फिर देखा हर्ष अकाल पड़ा
कष्टों की धधकी ज्वाला ने
पलकों पर वेग प्रवाह जड़ा।।

युद्ध पलक से हार विजय का
नित कोर द्वार से फूट रहे
पीर सहे जब कुछ शूलों की
तब पुष्प उन्हें फिर लूट रहे
छूट रहे अपनेपन हिय से
चुभता है भाव प्रसंग कड़ा।।

घोर व्यथा में खण्डित चूल्हा 
कुनबा भी सारा बिखरा है
फूट तवा अस्तित्व मिटाए
ईंधन का ऐसा नखरा है
अखरा है ये प्रेम सनक पर
फोड़े जो नित्य विकार घड़ा।।

भौंहों के नीचे की दुनिया
आज लरजती सी तड़प रही
शब्द धनुष की प्रत्यंचा चढ़ 
ये मार रहे हैं मार वही
खोल बही सब पढ़ती आँखें
दिखता जब मूढ़ विवेक धड़ा।।


©संजय कौशिक 'विज्ञात'

Thursday, August 19, 2021

रास छंद : शिल्प विधान - संजय कौशिक 'विज्ञात'



रास छंद :
संजय कौशिक 'विज्ञात'
शिल्प विधान-  रास छंद सम मात्रिक छंद है यह मापनी मुक्त छंद कहा जाता है। रास छंद 4 पँक्ति में लिखा जाता इसकी प्रत्येक पंक्ति में 22 मात्राएँ होती हैं। 8, 8, 6 पर यति का प्रयोग किया जाता है और पदांत 112 ही रखना चाहिए। क्रमागत प्रति दो पँक्ति में तुक बंदी मिलाई जाती है। मैं पूर्व में बता चुका हूँ यह मापनी मुक्त छंद है फिर भी उत्तम लय हेतु हम इस प्रकार की मापनी का प्रयोग कर सकते हैं
22 22, 22 22, 2112
22 22, 22 22, 2112
ध्यान रहे त्रिकल का प्रयोग (गाल, लगा के रूप में) उत्तम लय देता है। जिसे आप सरलता से पूर्व प्रदत्त अनेक छंद विषय पर भी लिख चुके हैं। आइये उदाहरण के माध्यम से समझते हैं-

नित्य सुगंधित, पाटल खिलते, मन खिलते।
उपवन चहके, प्रिय जन आकर, जब मिलते।।
आँखें भरती, रीत पुरानी, मिल रहते।
बातें करते, खुलकर हँसते, सब कहते।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'

Saturday, August 14, 2021

नवगीत : आज पुकार स्वतंत्र दिवस की, संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत
आज पुकार स्वतंत्र दिवस की, 
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी ~ 16/14

आज पुकार स्वतंत्र दिवस की, 
श्रेष्ठ दिनांक यहाँ रोये।
कुंभकर्ण सी निद्रा में अब,
अच्छे दिन फिर हैं सोये।।

चीखे अंतिम अंत्येष्टि जहाँ, 
शव के दावानल चीखें।
धार मुखौटे अत्याचारी,
संत बने खींचे लीखें।।
लोभ शिखा की दहके ज्वाला,
नेता जी अपने खोये।
कुंभकर्ण सी निद्रा में अब,
अच्छे दिन फिर हैं सोये।।

औषधि हन्ता केंद्र बने हैं, 
किसने निर्मम घात करी।
चिंतन भी छोड़ा वर्षों ने, 
सत्ता के मुँह दाल भरी।।
होली दीवाली भी सिसके,
बंधन राखी ही ढोये।
कुंभकर्ण सी निद्रा में अब,
अच्छे दिन फिर हैं सोये।।

अपनी रेलें बंद पड़ी हैं,
स्वप्न बुलेट दिखा देते।
शब्द बाग कब सिंचित करने,
जब चाहो महका लेते।।
बात निरर्थक सुनलो सारी,
चिह्न कालिमा के धोये।
कुंभकर्ण सी निद्रा में अब,
अच्छे दिन फिर हैं सोये।।

लहरों की फिर आड़ खड़ी सी,
मानवता का वध करती।
सरकारों को कुर्सी प्यारी,
जो बस डींगें ही भरती।।
काटेंगे ये उपज वही फिर,
बीज जहाँ जैसे बोये।
कुंभकर्ण सी निद्रा में अब,
अच्छे दिन फिर हैं सोये।।

मँहगाई का डंका बजता,
रोटी अपना दुख रोती।
दिखती फिर दिव्यांग सब्जियाँ,
रोग भरी जो नित होती।।
चटनी का भी स्वाद गया अब,
व्यंजन पूछें सुन ओये।
कुंभकर्ण सी निद्रा में अब,
अच्छे दिन फिर हैं सोये।।

साधन और प्रसाधन रचकर,
चेतन मन को लुब्ध किया।
चोट करारी उसपे मारी,
जनता ने विष तीव्र पिया।।
द्वार खड़े हैं दिन ये कैसे ?
रक्त चाप से नित छोये।
कुंभकर्ण सी निद्रा में अब,
अच्छे दिन फिर हैं सोये।।

आत्म हुतात्मी रैली निकली,
प्राप्त हुआ तब ये अवसर।
खण्डित हैं मर्यादा सारी,
भक्षक धर्म खड़ा तनकर।।
और स्वतंत्र दिवस का क्रंदन,
पीड़ा अन्तस् में झोये।
कुंभकर्ण सी निद्रा में अब,
अच्छे दिन फिर हैं सोये।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'

Friday, August 13, 2021

गीत : स्वर्ण पदक विजेता सूबेदार नीरज चोपड़ा : संजय कौशिक 'विज्ञात'



गीत 
स्वर्ण पदक विजेता
सूबेदार नीरज चोपड़ा
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी 16/14

गौरव गान सुना कवियों का
हर्ष घणा सा हिय छाया
एक लपेट तिरंगा तन पर 
नीरज जब भारत आया।।

सोना ये कुंदन सेना का
भाला खेल दिखाया है
और विजेता बन सोने का
हीरा नाम कमाया है
राजपुताना का इस जग में
डंका है खूब बजाया।।

केंद्र बना उत्तम उपमा का
पानीपत का शेर कहा
अँधियारे की छाती छेदे 
निकला सूर्य सबेर कहा
हरियाणे की माटी महके 
ऊँचा झण्डा फहराया।।

खेल शिरोमणि तमगा पहने
मुख मण्डल आभा चमके
पंजाबी कुल वीर बहादुर
तम में विद्युत से दमके
रिक्त पड़ा आँचल बिन सोना
भारत माँ को पहनाया।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'