संजय कौशिक 'विज्ञात'
हिन्दी छंद ; उल्लाला छंद ; चंद्रमणि छंद ; कर्पूर छंद ;
भेद- १
उल्लाला प्रथम भेद 13-13 मात्राओं के 4 चरणों का छन्द है। उल्लाला द्वितीय भेद 15-13 मात्राओं का विषम चरणी छन्द है।
दोहे के चार विषम चरणों से उल्लाला छन्द का निर्माण होता है। यह 13-13 मात्राओं का समपाद मात्रिक छन्द कहा जाता है, जिसके विषम चरणान्त में यति लगती है। सम चरणान्त में सम तुकांतता आवश्यक होती है। विषम चरण के अंत में ऐसा बंधन नहीं है। शेष नियम दोहा के समान हैं। इसका मात्रा भार विभाजन 8+3+2 है। अंत में एक गुरु या 2 लघु का विधान है।
अर्थात् उल्लाला में 13 मात्राएँ होती हैं। दस मात्राओं के अंतर पर (अर्थात् 11 वीं मात्रा) एक लघु रखना अनिवार्य है।
दो पदों में तेरह-तेरह मात्राओं के 4 चरण सभी चरणों में ग्यारहवीं मात्रा लघु चरण के अंत में यति (विराम) अर्थात् सम तथा विषम चरण को एक शब्द से न जोड़ा जाए चरणान्त में एक गुरु या 2 लघु हों सम चरणों (द्वितीय, चतुर्थ) के अंत में समान तुक हो सामान्यतः सम चरणों के अंत में एक जैसी मात्रा तथा विषम चरणों के अंत में एक-सी मात्रा होनी चाहिए।
मापनी के अनुसार भी शिल्प समझते हैं:-
22 22 212, 22 22 212
22 22 212, 22 22 212
कलन के अनुसार भी शिल्प समझते हैं :-
चौकल + चौकल + गाल + द्विकल
चौकल + चौकल + द्विकल + लगा
चौकल + चौकल + गाल + द्विकल
चौकल + चौकल + द्विकल + लगा
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संजय कौशिक 'विज्ञात'
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उदाहरण देखें -
सम चरण तुकान्तता-
पाटा पा टा में धँसा, बैलों को भी कष्ट ये।
कैसे खींचे अब उसे, करता ऊर्जा नष्ट ये।।
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पाटा अर्थ- लम्बी धरन की तरह आयताकार लकड़ी जिससे जुते हुए खेत की मिट्टी को समतल करते हैं (जैसे—किसान खेत में पाटा चला रहा है)
पा अर्थ- पैर, पाँव
टा अर्थ- पृथ्वी
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विषम-सम चरण तुकान्तता-
भक्तों के भगवान हैं, देते ये वरदान हैं।
पूजा अर्चन जो करें, उनकी झोली को भरें।।
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द्वितीय भाग के लिए पहला लेख पढ़ें जो पूर्व में ही प्रेषित किया जा चुका है....
संजय कौशिक 'विज्ञात'
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उदाहरण :-
3
गिल्ली डण्डा खेलते, बालक देखे गाँव से।
बचपन की यादें सभी, आकर पकड़े पाँव से।।
4
गंजा कंघी ले रहा, विक्रेता के भाव पर।
बिन पूछे ही भाव पर, पैसे देता नाव पर।।
5
खेतों की वो मेढ़ अब, बँटवारे में बँट गई।
अपनों के अपनत्व की, बदरी सारी छँट गई।।
6
पुरवा-पछवा दो हवा, दोनों के दो रंग हैं।
सुख-दुख बाँटे ये सदा, दोनों के ये ढंग हैं।।
7
पत्थर पूजे शिव मिले, मिलते बिन पूजे नहीं।
आस्था का ये केंद्र है, भूलो मत इसको कहीं।।
8
जल पर काई है खड़ी, लेकर पपड़ी रूप ये।
नदिया तट सुंदर दिखे, लहरों की ले धूप ये।।
9
सोना मैला कब दिखे, कुंदन घटता तेज कब।
गुण उत्तम के मूल्य हैं, कीचड़ में दे भेज अब।।
10
सच्चे झूठे सब यहाँ, गूँगों का भी ध्यान कर।
सब रचना उत्तम समझ, उस ईश्वर का मान कर।।
11
कोयल कूके बाग में, ये सुर का माधुर्य है।
कागा बालक पालता, ये उसका चातुर्य है।।
12
घण्टी बिल्ली के गले, बाँधेगा यूँ कौन अब।
चूहों के हैं पिंजरे, देखो दिखते मौन सब।।
13
श्लेष अलंकार
भँवरे गीतों की तड़प, धुन मतवाले रंग में।
अनुपम सी उत्कृष्ट हो, कलियाँ मांगे संग में।।
कलियाँ - अन्तरा , (अधखिले फूल) कलियाँ
14
फाटक कबकी बंद है, गाड़ी अवरोधित हुई।
स्त्री को जागा दुख प्रसव, चिंतित सी शोणित हुई।।
15
तोते सी रटना भली, रटते रहता राम ये।
देता सबको संदेश ये, आएगा जो काम ये।।
16
किसके घर लें जन्म फिर, पालन पोषण हो कहाँ।
कोयल खोले भेद ये, कागे हैं पागल यहाँ।।
17
हरसा पे चंदन घिसा, आएंगे प्रभु राम अब।
रटना में तुलसी रहा, आये का भी भान कब।।
18
काटे से कटती नहीं, देखो तो दिखती नहीं।
आत्मा है वो लेखनी, लिख कर सब लिखती नहीं।।
19
गोबर के उपले बनें, उपलों से फिर आँच है।
दाहक गिनलो तत्व ये, गिनती जिनकी पाँच है।।
20
नौका सरयू तट खड़ी, गिनती लहरें भोर में।
फिर लहरों से खेलती, आती विपदा घोर में।।
21
गणपति गिरजा लाल को, कवियों का हिय से नमन।
उल्लाला रच दें शतक, करके नित चिंतन मनन।।
22
कौशिक वीणापाणि का, नित ही हिय से दास है।
करवाती माँ ही सृजन, अन्तस् में विश्वास है।।
23
दशरथ नंदन राम के, सेवक तुलसीदास हैं।
भाषा बोलें भक्ति की, जन-मन के विश्वास हैं।।
24
बेरी की पावन धरा, गुरु चरणों का धाम है।
बेरी वाले गुरु कहें, ये ही उनका नाम है।।
25
कवि की शाला छंदमय, गुरुवर सारे कवि गुणी।
उत्तम सबके भाव हैं, उत्तम ये कविता क्षुणी।।
26
अर्णव शाला छंद की, कवियों का परिवार है।
मुझको नित अपना लगे, अपनों का आभार है।।
27
कविता शाला छंद की, कवियों का परिवार ये।
अपना सा लगने लगा, अपनों का है प्यार ये।।
28
कहती ध्वनि कर आरती, मंदिर आई टेक सुन।
घण्टा घर में गूँजता, घण्टे दो ध्वनि एक सुन।।
29
बगिया भावों सी खिले, बनता उत्तम काव्य है।
कवि कवयित्री के सृजन, निखरें नित सम्भाव्य है।।
30
शब्दों के संग्रह गठित, बनती कविता बोलती।
पलड़े में रख शिल्प के, उत्तम रस में तोलती।।
31
मानक सा ये यंत्र सुन, केवल मात्रा भार हैं।
मात्रा शब्दों की सखी, देती जो आकार है।।
32
व्याकुल शब्दों ने सुनी, अंतर मन की टीस जब।
निखरी तब ही व्यंजना, दे भावों को पीस जब।।
33
दुविधा है ये शिल्प की, मात्रा कहती छंद को।
जिह्वा मात्रा बन कहे, लघु गुरु लय आनंद को।।
34
सुविधा नित कवि मांगते, छंदों पर हैं शांत सब।
लिखना इनको जब पड़े, लिखते हैं अतुकांत सब।।
35
पापड़ सूखे धूप में, कागे छत पर झूमते।
अद्भुत सी ये ध्वनि करें, दीवारों पर घूमते।।
36
रोटी चूल्हे से कहे, फूंको मत यूँ आग से।
जैसा बाहर से दिखूँ, होगी भीतर भाग से।।
37
सिलबट्टा सब पूछता, धनिया की हिय पीर को।
रगड़ूँ कूटूँ जब तुम्हें, कैसे रखती धीर को।।
38
पहिया माटी से कहे, चढ़ती मेरे पेट पर।
जिस दिन मैं आया उदर, बोलोगी आखेट पर।।
39
गङ्गा से यमुना मिली, संगम पावन धाम वो।
ऐसे सब मिलते रहो, उत्तम करते काम को।।
40
पापों के पापा मरे, बढ़ जाते जब पाप हैं।
मम्मी को भी घाव दें, गिरती जब-जब छाप हैं।।
41
रक्षक जब तक शूल हैं, खिलते हँस पंकज सदा।
गलती से जो हट गए, रोयेंगे ये सर्वदा।।
42
चुभते शूलों की हँसी, पैरों को दे घाव जब।
उन घावों की पीर से, मुख पर दिखते भाव तब।।
43
झूठे अज्ञानी बढ़े, कलियुग में नित लोग अब।
पापी बढ़ते जा रहे, बढ़ते चहुँ दिश रोग अब।।
44
चारों युग उत्तम कहे, कलियुग नीची चाल से।
घटता मानव आयु से, मीठे जल के ताल से।।
45
व्याकुल हिय की दृग तुला, आँसू जिसके हैं वजन।
सुख-दुख में ये कम अधिक, सम हों तो करते भजन।।
46
किन्नर की हिय वेदना, समझो जाकर पार्थ तुम।
वर है या अभिशाप ये, समझो तजकर स्वार्थ तुम।।
47
अनपढ़ गौ को पालते, शिक्षित पालें श्वान को।
ये नागफणी रोपते, अनपढ़ बोयें धान को।।
48
पीपल बरगद कह रहे, मर्यादा विकलांग है।
बूढ़ों के दुख रो रहे, सिर चढ़ती सी भांग है।।
49
पचपन बचपन सा हृदय, कहते हैं सब लोग ये।
मानव हो जाता हठी, हठ का बढ़ता रोग ये।।
संजय कौशिक 'विज्ञात'