*गीतिका*
हास्य व्यंग्य की गीतिका
मापनी - 2212122 2212122
वो मार्ग है कठिन सा दिखता वहाँ न नाला।
उस पर समय हँसाता जब कीच से निकाला।।
यौवन ढले ठहर कर कुछ लोग भूल जाते।
बन मित्र ठोकरों ने दे हाथ है सँभाला।।
वह रोग था भयंकर मिथ्या प्रपंच सारे।
साहस तभी दिखाया इक और प्रेम टाला।।
नित माँगता रहा वो अपना प्रसाद चलकर।
यह गौर श्वेत वर्णी वो और श्याम काला।।
धन की कमी नहीं थी गंजा भले रहा वो।
कह कौन प्रेम अंधा काला दिखे उजाला।।
कुछ वृद्ध वे युवा से नित दौड़ते रहे हैं।
ढल आयु भी गई पर संबंध था निराला।।
चंचल नहीं रहा मन ठहराव आयु पचपन।
बिन जाड़ दाँत के रस यूँ ईख से निकाला।।
कौशिक सुधर गई है अब वृद्ध नीति इनकी।
परिवार जोड़ते पर सह मार और छाला।।
©संजय कौशिक 'विज्ञात'