Sunday, May 29, 2022

गीतिका : हास्य व्यंग्य : संजय कौशिक विज्ञात



*गीतिका*

हास्य व्यंग्य की गीतिका
मापनी - 2212122 2212122

वो मार्ग है कठिन सा दिखता वहाँ न नाला।
उस पर समय हँसाता जब कीच से निकाला।।

यौवन ढले ठहर कर कुछ लोग भूल जाते।
बन मित्र ठोकरों ने दे हाथ है सँभाला।।

वह रोग था भयंकर मिथ्या प्रपंच सारे।
साहस तभी दिखाया इक और प्रेम टाला।।

नित माँगता रहा वो अपना प्रसाद चलकर।
यह गौर श्वेत वर्णी वो और श्याम काला।।

धन की कमी नहीं थी गंजा भले रहा वो।
कह कौन प्रेम अंधा काला दिखे उजाला।।

कुछ वृद्ध वे युवा से नित दौड़ते रहे हैं।
ढल आयु भी गई पर संबंध था निराला।।

चंचल नहीं रहा मन ठहराव आयु पचपन।
बिन जाड़ दाँत के रस यूँ ईख से निकाला।।

कौशिक सुधर गई है अब वृद्ध नीति इनकी।
परिवार जोड़ते पर सह मार और छाला।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'

Saturday, May 28, 2022

गीतिका : नव प्रीत : संजय कौशिक 'विज्ञात'


*गीतिका*
मापनी - 2212122 2212122 

नव प्रीत की कथा का ये खण्ड है अमर नित।
जब दीप पर मचलती वह लौ हुई समर्पित।।

उस इक भ्रमर कली की जब भी हुई न बातें।
पीड़ा विरह जलन की यह अग्नि सार गर्भित।।

सूंघे पराग तितली यह पुष्प का समर्पण।
यह प्रेम और अद्भुत जिसका विधान चर्चित।।

फिर चंद्र की चकोरी इक प्रेम की तपस्या।
जिनका मिलन असम्भव दिखती कभी न विचलित।।

कुछ प्रीत की परीक्षा संबंध से फलित है।
वह झूठ देह बंधन हो सत सदैव खंडित।।

सागर कहाँ सुनेगा धड़कन वहाँ धड़कती।
जब उर्मियाँ पुकारें कर भाव नेह निर्मित।।

बंधन प्रणय वही है जो जोड़ले ह्रदय को।
उर मुग्ध सा दिखे जब देखे कुटुम्ब हर्षित।।

घनघोर से तिमिर का विश्वास प्रेम बाती।
लौ पर जले पतंगे कर प्राण ही विसर्जित।।

बिन शब्द ज्ञान ढाई कुछ लोग हैं भटकते।
विज्ञात बोलते वो बस तन हुआ सुवासित।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'

गीतिका : संजय कौशिक विज्ञात




*गीतिका*
मापनी - 2212122 2212122 

इक हाथ में तिरंगा जन-जन लिए चलेंगे।
जय घोष यूँ लगाकर जय हिंद भी कहेंगे।।

दृग लाल कर हिमालय सागर लहर दहाड़ें।
रिपु जब इन्हें सुने तब कम्पित हुए डरेंगे।।

सैनिक सभी हमारे हैं विश्व में प्रमाणित।
उस साख को बढ़ाते आगे सदा बढ़ेंगे।।

तन ओढ़ते तिरंगा ये श्रेष्ठ हैं हुतात्मा।
सच स्वप्न देश के नित योद्धा यही करेंगे।।

रक्षक दिखें निरंतर प्रहरी सजग हमारे।
यूँ शौर्य की उमंगे हिय शौर्य से भरेंगे।।

अम्बर झुका सकें सब साहस यही पुकारे।
बन भूमि का पुजापा नित पूज के चलेंगे।।

कौशिक ठहर समय की देखे घड़ी अचंभित।
शव आवरण हँसाकर उस आग में जलेंगे।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'

Thursday, May 26, 2022

गीतिका संजय कौशिक विज्ञात



*गीतिका*
मापनी - 21221 21222

पीर भी गीत फिर सुनाती है।
जब सिसक ताल सुर लगाती है।।

रात का घाव है अँधेरा ये
चाँदनी लेप से मिटाती है।।

शूल की नोंक रक्त से भीगी
पाँव की चोट को छिपाती है।।

नेत्र की धार यूँ बहे झरना
तोड़ के स्वप्न सा रुलाती है।।

चैन की चोट यूँ करे क्रंदन
चीख हरबार ये बढ़ाती है।।

ये व्यथित झूल यूँ पड़ी सूनी
याद की गोद फिर झुलाती है।।

कष्ट की मोच त्रस्त यूँ करती
पाँव को तोड़ जो चलाती है।।

टीस की रीस क्यों करे कौशिक
देख दिन रात जब जगाती है।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'

Wednesday, May 18, 2022

हास्य रस. : गीतिका : संजय कौशिक 'विज्ञात'


हास्य रस
गीतिका 
संजय कौशिक 'विज्ञात'

212 1222 212 1222

बात बात पे इटली रोज वो घुमाती है।
इक जहाज पानी का स्वप्न में उड़ाती है।।

एक रेल गाड़ी को देख कर मुझे बोली
मार मार सीटी ये क्यों मुझे बुलाती है।।

गाँव में बुलाया मैं फोन पे रिझाया मैं 
बैठ एक झोटे पे सैर वो कराती है।।

प्यार फेसबुक वाला पड़ गया मुझे भारी
डायना बनी डायन बस नकद उड़ाती है।।

चैट फेसबुक वाली जब पढ़ी जरा सी ही 
मार-मार के बेलन पीठ को सुजाती है।।

कर रही बहाने है माँगती नहीं इमली
और वो कहे बाबू फिर मुझे नचाती है।।

खेत में चलो कौशिक झट निकाल के नैनो
भागती चली बुग्गी गाल से चलाती है।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Saturday, May 14, 2022

हिन्दी गजल : सनातन चाय : संजय कौशिक 'विज्ञात'



हिन्दी गजल 
सनातन चाय 
संजय कौशिक 'विज्ञात'
मापनी 28/28


चाय का आनंद चुस्की मौन तो पानी भला है।
फिर अगर है मौन पीना पीर पी जिसने छला है।।

चाय पत्ती कष्ट वाली कुछ घृणा मीठा समझले
चुस्कियों पर चुस्कियाँ ले रोग ये भूलो बला है।।

क्रोध उबले जब निकलता दूध डालो शांति वाला
फिर उबाले पर उबाले नेह की ये भी कला है।।

देख ईर्ष्या मान छलनी छानती जो अवगुणों को
छान देती रस गुणी वो स्वाद बन अदरक चला है।।

मोह मोहक बन सुगंधित लौंग का ये फूल घुलकर 
जो द्विषा लालच बिखेरे सोच ये किनसे टला है।।

लोभ प्याली एक कुनबा टूट कर बिखरे कभी क्यों 
चाय पीते सब रहें बस लो पकौड़ा भी तला है।।

चुस्कियाँ विज्ञात लेता कर सनातन चाय निर्मित
द्वंद्व अन्तस् का विजेता इस जगत में नित फला है।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'