*गीतिका*
मापनी - 21221 21222
पीर भी गीत फिर सुनाती है।
जब सिसक ताल सुर लगाती है।।
रात का घाव है अँधेरा ये
चाँदनी लेप से मिटाती है।।
शूल की नोंक रक्त से भीगी
पाँव की चोट को छिपाती है।।
नेत्र की धार यूँ बहे झरना
तोड़ के स्वप्न सा रुलाती है।।
चैन की चोट यूँ करे क्रंदन
चीख हरबार ये बढ़ाती है।।
ये व्यथित झूल यूँ पड़ी सूनी
याद की गोद फिर झुलाती है।।
कष्ट की मोच त्रस्त यूँ करती
पाँव को तोड़ जो चलाती है।।
टीस की रीस क्यों करे कौशिक
देख दिन रात जब जगाती है।।
©संजय कौशिक 'विज्ञात'
सादर नमन गुरुदेव 🙏
ReplyDeleteबहुत ही आकर्षक गीतिका
मोहक बिम्ब और उतकृष्ट शब्द चयन 💐💐💐
शानदार रचना गुरुदेव को नमन
ReplyDeleteअनुपम मनोरम सृजन
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर 👌 अनुपम, अनुकरणीय रचना
ReplyDeleteनमन गुरु देव 🙏💐
अति सुंदर भावबिंब आदरणीय
ReplyDeleteगजब लेखनी है गुरुवर की
ReplyDeleteगुरु देव नमः
ReplyDeleteनवगीत सा सूंदर बिम्ब से सजे , बहुत सुंदर
ReplyDeleteबेहतरीन सृजन आदरणीय 🙏
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर रचना 👌 गुरुदेव 🙏
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