*गीतिका*
मापनी - 2212122 2212122
नव प्रीत की कथा का ये खण्ड है अमर नित।
जब दीप पर मचलती वह लौ हुई समर्पित।।
उस इक भ्रमर कली की जब भी हुई न बातें।
पीड़ा विरह जलन की यह अग्नि सार गर्भित।।
सूंघे पराग तितली यह पुष्प का समर्पण।
यह प्रेम और अद्भुत जिसका विधान चर्चित।।
फिर चंद्र की चकोरी इक प्रेम की तपस्या।
जिनका मिलन असम्भव दिखती कभी न विचलित।।
कुछ प्रीत की परीक्षा संबंध से फलित है।
वह झूठ देह बंधन हो सत सदैव खंडित।।
सागर कहाँ सुनेगा धड़कन वहाँ धड़कती।
जब उर्मियाँ पुकारें कर भाव नेह निर्मित।।
बंधन प्रणय वही है जो जोड़ले ह्रदय को।
उर मुग्ध सा दिखे जब देखे कुटुम्ब हर्षित।।
घनघोर से तिमिर का विश्वास प्रेम बाती।
लौ पर जले पतंगे कर प्राण ही विसर्जित।।
बिन शब्द ज्ञान ढाई कुछ लोग हैं भटकते।
विज्ञात बोलते वो बस तन हुआ सुवासित।।
©संजय कौशिक 'विज्ञात'
नमन गुरुदेव 🙏
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर गीतिका। प्रतीकों का आकर्षक प्रयोग 👌
बहुत सुंदर गुरुजी 🌷
ReplyDeleteबेहद खूबसूरत रचना आदरणीय।
ReplyDeleteअद्भुत अनुपम लेखनी
ReplyDeleteगुरुदेव को सादर नमन
श्रृंगार रस का सुंदरतम सृजन।
ReplyDeleteभाव कथन सभी सांगोपांग।
👌👌
अप्रतिम रचना। नमन गुरु जी की लेखनी को।
ReplyDeleteशानदार सृजन 👌 आ.🙏
ReplyDeleteअप्रतिम गीतिका आदरणीय गुरुदेव नमन 🙏🙏
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