नवगीत
शब्दशक्ति
संजय कौशिक 'विज्ञात'
मापनी ~14/12
सप्त सुर में गूँजती सी
काव्य की अनुपम छटा
नौ रसों के भाव नूतन
यौवना बाँधे जटा।।
तुक वसन तन पर निखरता
कामनी सी दंग करती
बिन तुकों की धार लज्जा
ओढ़नी सिर ओढ़ मरती
शब्द से शृंगार लेकर
अर्थ की उलझी लटा।।
ले गणित का ज्ञान गहरा
श्रेष्ठ विद्योत्मा यही है
हारते काली जहाँ पर
बात विदुषी सी कही है
छंद लेखन झट निभाये
शिल्प है ऐसा रटा।।
चित्र यूँ हितकर उकेरे
बिम्ब की अनुपालना से
दोष सारे लक्षणा के
छानती है छालना से
व्यंजना की ये तपस्या
शक्ति रखती जो सटा।।
संजय कौशिक 'विज्ञात'