कविता / गीत
मेंहदी-महावर
संजय कौशिक 'विज्ञात'
मापनी ~ 16/16
मेंहदी रचाती जब सजनी
देख महावर करे प्रतीक्षा
राग विराग हृदय की तड़पन
करे परीक्षण दृष्टि तिरीक्षा।।
बिंदी की आभा विचलनमय
अंगारों सी जगी तितिक्षा
फेरों की वे स्मृतियाँ उलझी
विस्मृति पाकर बहकी इक्षा
विरहन जैसी ज्वाला दहकी
विरह मिलन की करे समीक्षा
करुण व्यथित सा नेत्र द्रवित कर
आहत उर की भूला रक्षा
कंगन की खनखन सूनी सी
सूनी पगडंडी ने भक्षा
व्याकुल अंतः करण प्रताड़ित
हिय स्पंदन जब चली परीक्षा।।
नील कुरिंजी पुष्प सुगंधित
देता सा गजरे को शिक्षा
काल कुसुम स्थिर उर का खिलना
हर्षित क्षण की भूले भिक्षा
ठहर देखती व्याप्त वेदना
चंद्र-चकोरी प्राप्त निरीक्षा।।
©संजय कौशिक 'विज्ञात'