नवगीत
पर्वतों से आह निकली
संजय कौशिक विज्ञात
मापनी ~ 14/14
पीर के ज्वालामुखी को
देखकर चट्टान पिघली
आँसुओं सी बह गई जब
पर्वतों से आह निकली।।
घात दे आकृति धुँए की
नेत्र भी बहने लगे फिर
दूर हट जा मत तड़प दे
बात वो कहने लगे फिर
ढूँढते ढाँढस फिरे जब
प्राप्त होते आम इमली।।
शांत वो गरजा गगन भी
धीर बाँधे मेघ न्यारी
पीठ में अपनत्व की यूँ
देख लंबी सी कटारी
रक्त की बहती नदी सी
हर्ष की यूँ प्यास निगली।।
फट गया धरणी ह्रदय यूँ
आस की हर डोर टूटी
और अन्तस् को व्यथित कर
जब हृदय की कोर लूटी
चंद्र तारे सौर मण्डल
मिल बुझाते आग पिछली।।
संजय कौशिक विज्ञात
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