Monday, December 13, 2021

नवगीत : दीनता की पीपनी : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत 
दीनता की पीपनी
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी स्थाई/पूरक पंक्ति 14/12
                            अंतरा 14/14

धोबियों के घाट नाचें
नित वसन की ताल पर
दीनता की पीपनी सी
बज रही हर गाल पर।।

प्याज की महँगी प्रथाएँ
मेंहदी को यूँ रुलाती
रोटियाँ चटनी नहीं हैं
पेट को भूखा सुलाती
भूख दुल्हन भी विदाई 
चाहती हर हाल पर।।

झूठ परिणय सूत्र दिखता
स्वप्न कब देखे हठीली
जो हवन वेदी बना है 
आँख उसकी देख गीली
तेल चढ़ता बान बैठी
दीनता इस साल पर।।

काज धंधे मिट चुके हैं
मौन शहनाई बताती
कष्ट की बारात दर पर 
गौरवा कर पूर्ण आती
और दायज राज माँगे
धोबियों के माल पर।।

#संजयकौशिक'विज्ञात'

11 comments:

  1. बहुत ही सुंदर करुण रस से भरपूर नवगीत 👌
    शानदार सृजन की ढेर सारी बधाई 💐💐💐

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  2. वाह वाह 👌 सुंदर सृजन 👌
    नमन गुरु देव 🙏💐

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  3. बहुत ही सुन्दर नवगीत और शब्द बिम्ब अति सुन्दर मनमोहक पूरा दृश्य नजर आने लगा शानदार बहुत। बधाई आपको नमन वंदन आपको 👌👌👌👌🙏🙏🙏🙏

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  4. बहुत ही सुन्दर सृजन आ.गुरुदेव जी

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  5. वाह बहुत खूब । सुंदर और सटीक रचना । नमन गुरुदेव ।

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  6. दीनता को अनेक बेहतरीन बिम्बों से सजाकर लिखा हुआ एक मार्मिक एवं शानदार नवगीत 👌🙏

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  7. बहुत खूब, सादर नमन गुरुदेव

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  8. बहुत खूब और मार्मिकता से परिपूर्णतम रचना ।

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  9. बहुत ही मर्मस्पर्शी नवगीत👏👏👏👏👏👏

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  10. बहुत ही सुंदर लेखनी

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