नवगीत
यात्रा
संजय कौशिक 'विज्ञात'
मापनी ~~14/14
स्थाई
पथिक को मिलता ठिकाना,
सतत यात्रा के सहारे।
चलें भूखे प्यास सहते,
नदी लहरों के इशारे॥
1
पखेरू फिर ढूंढते हैं,
बसेरा पल-पल कहाँ पर।
कभी यात्रा पूर्ण दिखती,
मगर वो छलती वहाँ पर।
चले धारा मीन बहती,
समझता आ मन यहाँ पर।
जहाँ पर भी आज देखो,
झरोखे से दृश्य सारे।
पथिक को मिलता ठिकाना,
सतत यात्रा के सहारे।
2
तके अन्तस् मोर नाचे,
गरजते बादल दिखे तो
तभी धुन दादुर सुनाये,
जलद कुछ बूंदें लिखे तो।
चमक जब जुगनू बिखेरे,
अचल तक देखो शिखे तो ।
त्रिखे तो बढ़ते सदा हैं,
महक मघुबन की पुकारे।
पथिक को मिलता ठिकाना,
सतत यात्रा के सहारे।
संजय कौशिक 'विज्ञात'
पखेरू फिर ढूंढते हैं,
ReplyDeleteबसेरा पल-पल कहाँ पर।
कभी यात्रा पूर्ण दिखती,
मगर वो छलती वहाँ पर।
बेहतरीन और लाजवाब सृजन गुरु देव नमन आप को और आप की लेखनी को
आत्मीय आभार चमेली जी
Deleteसतत यात्रा के सहारे👌👌👌👌👌👌
ReplyDeleteवाहः वाहः वाहः वाहः
आत्मीय आभार तेज राम जी
Deleteलक्ष्य हासिल करने के लिए चलना चाहिए। इस गीत के माध्यम से विकास पथ की ओर बढ़ने के लिए इंगित किया गया सन्देश अनुकरणीय है। सादर बधाई।
ReplyDeleteआत्मीय आभार रामचंद्र जी
Deleteउत्तम रचना सर जी हार्दिक बधाई हो
ReplyDeleteआत्मीय आभार बोधन राम जी
Deleteबेहतरीन रचना
ReplyDeleteआत्मीय आभार अनिता जी
Deleteसुख दुख जीवन का हिस्सा हैं पर निरंतर चलते रहना ही एक मात्र उपाय है मंजिल तक पहुंचने का इस बात से पूर्ण सहमत।।प्रकृतिक बिम्ब के माध्यम से सार्थक संदेश देता अनुपम नवगीत 👌👌👌 नमन आपकी लेखनी को जो नित्य नवीन सफल प्रयोग करती रहती है जिसका फायदा हम सबको प्राप्त होता रहता है 🙏🙏🙏 ढेर सारी बधाई और शुभकामनाएं 💐💐💐
ReplyDeleteआत्मीय आभार नीतू जी
Deleteअति सुंदर एवं प्रशंसनीय रचना
ReplyDeleteआत्मीय आभार अतिया जी
Deleteबेहद खूबसूरत रचना 👌
ReplyDeleteआत्मीय आभार अनुराधा जी
Deleteशानदार भाव अभिव्यक्ति
ReplyDeleteआत्मीय आभार रजनी जी
Deleteशानदार पंक्तियां आदरणीय
ReplyDeleteआत्मीय आभार पूनम जी
Deleteहो कर्मपथ पर अग्रसर, बाधाओं को तू पार कर ,मंजिल मिल ही जाएगी ,बस निरंतर तू प्रयास कर
ReplyDeleteबहुत सुन्दर, संदेश देता सृजन आदरणीय 👌👌👌
आत्मीय आभार पूजा जी
Deleteअतुलनीय नवगीत
ReplyDeleteआ.सर जी शुभकामनाएं 🙏🙏
अतुलनीय नवगीत
ReplyDeleteआ.सर जी शुभकामनाएं 🙏🙏
आत्मीय आभार सविता जी
Deleteशानदार रचना
ReplyDeleteचमक जब जुगनू बिखेरे, अचल तक देखो शिखे तो ।त्रिखे तो बढ़ते सदा हैं, महक मघुबन की पुकारे। अद्भुत शब्द चयन और शानदार भाव👏👏👏👏👏👏👌👌👌👌👌👌
ReplyDeleteआत्मीय आभार अनुपमा जी
Deleteअति सुंदर
ReplyDeleteआत्मीय आभार अनिता जी
Deleteअति सुंदर भावपूर्ण सृजन को नमन
ReplyDeleteआत्मीय आभार श्रीवास्तव जी
Deleteएक और असाधारण रचना ।
ReplyDeleteहमारी सोच से बहुत ऊपर ।
शायद ही यहां तक छू भी पाएं।
सादर।
अनुपम सृजन।
बेहतरीन आदरणीय, अत्तिउत्तम।
ReplyDeleteअनुपम सृजन आदरणीय विज्ञात सर जी 🙏
ReplyDeleteअनुपम सृजन सर।
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