नवगीत
बिलखा अम्बर
संजय कौशिक 'विज्ञात'
मापनी ~~16/14
चमक उठी यह देख चांदनी,
धरणी पर था वर्ण धवल।
रोया कब वो बिलखा अम्बर,
दिखती है फिर बून्द नवल।
1
बाह्य अलंकारों ने पूछा,
भीतर कितनी घात बड़ी।
विरही छुप छुप जली चांदनी,
जागी भटकी रात बड़ी।
ओस रूप में बह कर टपका,
पसरा दिखता देख जवल ....
2
संध्या सिंदूरी सपने से,
महक उठी थी चहक बड़ी।
नभ मण्डल के तारे गाते,
अन्तस् धुन दे लहक बड़ी।
दिखा शरद के अंगारो से,
जगी व्यथा का ग्रसित कवल....
3
उर्मि धड़कनों सी बतियाती,
ज्वाला सा फिर फूट गया।
अंतरंग के संबंधों का,
अति प्रिय सा कुछ छूट गया।
गीत सुरों की गली गुजरता,
सुन कर उमड़े भाव प्रवल।
संजय कौशिक 'विज्ञात'
उम्दा वाहह कहना बनता है।👌👌💐💐
ReplyDeleteउम्दा वाहह कहना बनता है।👌👌💐💐
ReplyDeleteविरोधाभासात्मक व्यजनां में लिखा सुंदर नवगीत । अनन्त बधाई ।
ReplyDeleteबहुत सुंदर!👌
ReplyDelete----अनीता सिंह अनित्या