नवगीत
मृत पड़ा विश्वास हो
संजय कौशिक 'विज्ञात'
मापनी ~14/12
भाव जिसके मृत पड़े हों
मृत पड़ा विश्वास हो
क्या भला जीवित रहे वो
मर चुकी हर आस हो।।
इक तिमिर दर्पण बना सा
मित्र जिसके साथ का
दृश्य छवि प्रतिबिंब ओझल
जो नहीं है हाथ का
वृक्ष सम्मुख है खड़ा या
एक तिनका घास हो
दोष अन्तस् के चमकते
हो सकेंगे दूर ये
श्यामला आनंद छाए
कर हृदय भरपूर ये
छाँटती भुरळी नहीं जब
लाभ क्या दे रास हो।।
आवरण ये शांत सा है
लोक धारे यूँ खड़े
कौन अपने हैं पराए
दृग पिपासित से गड़े
छूटती है डोर हिय की
बन्द होती श्वास हो।।
भुरळी - कनक में हल्के सूखे हुए तृण
रास - उपज को साफ करने की पद्धति
© संजय कौशिक 'विज्ञात'
हृदयस्पर्शी मार्मिक सृजन गुरुदेव 🙏
ReplyDeleteउत्तम काव्य रचना
ReplyDeleteडा यथार्थ
हृदयस्पर्शी दिल को छुने वाली बात सुदंर नवगीत🙏🙏🙏🙏
ReplyDeleteमनभावन
ReplyDeleteमार्मिक✍️✍️👌👌💐💐🙏🙏
ReplyDeleteबहुत सुंदर नवगीत
ReplyDeleteअति उत्तम रचना
ReplyDeleteअभिनव अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteसुंदर अप्रतिम।
सुंदर अभिव्यक्ति गुरूदेव 🙏
ReplyDeleteअप्रतिम रचना ❤️💐🙏
अप्रतिम गुरुवर की लेखनी ः।जय हो
ReplyDeleteआदरणीय गुरुदेव को मेरा प्रणाम ,आपकी लेखनी सचमुच अप्रतिम है ।
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