नवगीत
व्यंजनाओं ने पुकारा
व्यंजना शृंखला-5
संजय कौशिक 'विज्ञात'
मापनी~~ 14/12
व्यंजनाओं ने पुकारा
गीत क्रंदन ताल पर
सुर सुबकते कुछ सिसकते
अश्रु ठहरे गाल पर।।
मौन की अवधारणा भी
टूट के बिखरी वहाँ
अंश हिय आहत हुआ फिर
शब्द थे बाधित जहाँ
रुद्ध बाँसुरिया सुनाए
यूँ व्यथा इस हाल पर।।
रागिनी का अस्त आँचल
बाध्य झीरम झीर सा
निम्न कोलाहल वहाँ का
रिक्त नदिया तीर सा
फड़फड़ाहट गूँज के स्वर
उस हवा की चाल पर।।
वो मधुर मिश्री नहीं है
तंतु भी ओझल दिखा
प्रीत संगम बंधनों के
तार वीणा पर लिखा
फिर नमक से वर्ण पिघले
इस हृदय की आल पर।।
संजय कौशिक 'विज्ञात'
बहुत ही खूबसूरत 👌👌👌
ReplyDeleteहृदयस्पर्शी मार्मिक नवगीत ...लाजवाब 👌
नमन आपकी लेखनी को गुरुदेव 🙏
बेहद मर्मस्पर्शी सृजन आदरणीय।
ReplyDeleteशानदार सृजन
ReplyDeleteसुर सुबकते कुछ सिसकते अश्रु ठहरे गाल पर
ReplyDeleteउत्कृष्ट भाव
नमन गुरु जी
बेहद खूबसूरत नवगीत आदरणीय गुरुदेव नमन आपको🙏🙏🙏🙏
ReplyDeleteखूबसूरत👌👌👌
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