नवगीत
खण्डित आभा
संजय कौशिक 'विज्ञात'
मापनी ~~ 16/14
टुकड़े टुकड़े चंद्र समेटे
खण्डित आभा मौन खड़ी
दीप्त प्रभा में उलझे तारे
चंद्रकला की दृष्टि पड़ी।।
रूप निखरता काल रात्रि का
श्रेष्ठ विधानी सा बनकर
ओस बहे ज्यूँ देख द्रुमों से
आती है फिर छन-छनकर
दर्पण विस्मित चिंतित देखे
कैसी ये खद्योत झड़ी।।
देख रजत जल झरना देता
और मयंक हुआ पागल
धरणी अम्बर मध्य खड़े ये
रूपा से दमके बादल
एक बयार चली कड़वी सी
मेघ गिराए मार छड़ी।।
और तिमिर का दम्भ हरण कर
ज्योत्स्ना भावुक नेत्र करे
देख उमंग भरे ज्यूँ गङ्गा
लावे का भी ताप हरे
उजियारी सी चमक चाँदनी
सौम्य बनी बिन बात लड़ी।।
संजय कौशिक 'विज्ञात'
बहुत ही शानदार नवगीत लिखा आपने गुरुदेव 💐💐💐 लाजवाब शब्द चयन ...खूबसूरत बिम्ब...भाव, कथन सब अनुपम 👌 इस नवगीत को पढ़कर कोई भी गुनगुनाये बिना नही रह सकता....बहुत ही आकर्षक लेखन 🙏
ReplyDeleteबेहद खूबसूरत नवगीत आदरणीय 👌👌👌👌
ReplyDeleteबेहतरीन रचना
ReplyDeleteनमन गुरु देव 🙏💐
बहुत सुंदर👌👌👌
ReplyDeleteवाह!लाजवाब अद्भुत, हृदयस्पर्शी😍😍✍️✍️🙇🙇🙏🙏
ReplyDeleteबहुत ही शानदार नवगीत शब्दों का तालमेल और इतना सुदंर लय सजता गीत अद्भुत हृदयस्पर्शी 🙏🙏🙏🙏👌👌👌
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत नवगीत 👌👌👌👌
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर नवगीत 👌👌🙏
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