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Wednesday, June 9, 2021

गीत : वट सावित्री की पीर : संजय कौशिक 'विज्ञात'


गीत 
वट सावित्री की पीर 
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी ~~14/14

इस महामारी जळी से
आज बाणा रो रहा है
पर्व सावित्री रुलाता 
कष्ट उजमण ने कहा है।।

स्पर्श कर जिनके चरण को
माँगती वरदान ढेरों
आज वे दिखते नहीं हैं
बन चुके बैकुण्ठ डेरों 
रिक्तपन अन्तस् कचोटे
स्मृति पटल से दृग बहा है।।

प्रीत का आँचल सिकुड़कर
तंग हिय को नित्य करता
और दिखता ही नहीं है
प्रेम का वो राग भरता
उस भ्रमर का गान झूठा
जो नहीं जाता सहा है।।

श्वास डोरी आस टूटी 
सास काँधों पर चढ़ी है
और दीपक जो जला था
लौ अचानक वो बढ़ी है
नींव का अवशेष मिटकर
दुर्ग पत्तों सा ढहा है।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

10 comments:

  1. अति मार्मिक काव्य! सत्य कहा आपने, प्रेम का आस्तित्व मिटता जा रहा है।

    -गीतांजलि

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  2. बहुत बढ़िया

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  3. बेहद मर्मस्पर्शी सृजन आदरणीय

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  4. वाह वाह 👌 सुंदर सृजन आदरणीय गुरु देव
    सादर नमन 🙏🙏🙏

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  5. वाह बहुत ही सुन्दर सृजन आ. गुरुदेव जी

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  6. हृदयस्पर्शी,मार्मिक सृजन आदरणीय🙏🙏🙏

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  7. मार्मिक रचना🙇🙇🙏🙏

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  8. मर्मस्पर्शी रचना

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  9. मर्मस्पर्शी भाव।
    अलंकारों से सुसज्जित आदर्श नव गीत।

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  10. बहुत ही हृदयस्पर्शी रचना ....सत्य है कि इस वर्ष कोई भी पर्व खुशी से नही बीता..कोरोना की छाया सभी के खुशियों पर ग्रहण बनी रही। आपके द्वारा लिखा नवगीत अनेकों के हृदय की पीड़ा को व्यक्त कर रहा है। शब्द, भाव, कथन सब एक से बढ़कर एक 👌👌👌 नमन आपकी लेखनी को गुरुदेव 🙏

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