copyright

Friday, July 2, 2021

नवगीत : आत्मघात : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत
आत्मघात
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी ~ 16/14

धरणी अपना पुत्र निहारे 
एक लटकता गल फंदा
देख कृषक के दृश्य व्यथित से
मेघ बरसता दृग मंदा।।

आत्मघात का दृश्य भले ये 
ऋण वध करता किसे दिखे
सेठ बही सब बोल कहेगी
साक्ष्य सभी के पाठ लिखे
ब्याज चढ़े नित मसि की सीढ़ी
सेठ चमकता ज्यूँ चंदा।।

शुष्क उपज चीत्कार कहे तब
अन्तस् का क्रंदन सारा
कौन कहे ये आप मरा है
इसको विधना ने मारा
टेढ़ी ये जीवन की लकड़ी
काल चला जाता रंदा।।

कूप कहे विद्युत की करनी
फूँक चली जो स्रोत सभी
इसका नाम नही हो सकता
मृत्यु रहे सच देख तभी
बैल खड़े वे पग को चाटे
करके निज मुख को गंदा।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'

7 comments:

  1. मार्मिकता से परिपूर्ण सृजन✍️✍️👌👌🙇🙇🙏🙏

    ReplyDelete
  2. बहुत ही मार्मिक नवगीत गुरूदेव जी । कृषकों की दयनीय स्थिति को दर्शाती । प्रणाम आपको इस सार्थक लेखन के लिए ।

    ReplyDelete
  3. सदियाँ बीती युग गए, गए अनेकों माह
    कृषक रहा रोता सदा, सदा हुआ हिय दाह

    बहुत ही खूबसूरत हृदय स्पर्शी नवगीत 👌👌👌
    किसानों की व्यंजना को इतने सटीक और मार्मिक बिम्बों के माध्यम से शायद ही किसी ने पृष्ठों पर उतारा हो । सभी बिम्ब एक से बढ़कर एक 👌 नमन आपकी लेखनी को 🙏

    ReplyDelete
  4. बहुत ही सुन्दर किसानों की स्थिति को आपने इस नवगीत में दर्शाया है उतना ही खूबसूरत बिंम्ब से सजाया है सुदंर नवगीत सादर प्रणाम🙏🙏🙏🙏

    ReplyDelete
  5. हृदयस्पर्शी, मार्मिक नवगीत आदरणीय...किसानों की व्यथा ,उनकी दयनीय स्थिति का यथार्थ भावपूर्ण चित्रण..बेहतरीन बिंब सादर नमन 🙏🙏🙏

    ReplyDelete
  6. ह्रिदय्स्पर्शी भावों का सृजन,सुंदर शब्द शौष्ठव द्वारा रचित रचना।

    ReplyDelete
  7. बहुत मार्मिक रचना👌

    ReplyDelete