नवगीत
व्यंजना नवगीत ओढ़े
संजय कौशिक 'विज्ञात'
मापनी ~14/14
बाँसुरी ने राग छेड़े
फिर दहकते गीत मेरे
ये अधर वो पुष्प चूमें
जब चहकते गीत मेरे।।
घाटियाँ गुंजित गगन की
नव्यता के बोल सुनकर
ग्राम स्वर उस लेखनी का
छंद मधुरिम काव्य बुनकर
तंतुवाही ताल ठोकी
फिर खनकते गीत मेरे।।
उर्मियाँ भी शब्द टोहे
बिम्ब उत्तम जो निखारे
मेघ की गर्जन मल्हारी
भाव जड़ती और प्यारे
चंद्र से उज्ज्वल निखर के
यूँ दमकते गीत मेरे।।
व्यंजना नवगीत ओढ़े
टीस की अनुपालना में
शक्ति शाब्दिक झूलती है
लक्षणा की टालना में
फिर अभिधा भी सिसकती
जब खटकते गीत मेरे।।
सभ्यता संस्कृति समेटी
दी प्रतीकों ने झलक ये
नेत्र मनभावन कहे जब
बंद करती हैं पलक ये
भाव अन्तस् में लहरते
फिर झटकते गीत मेरे।।
©संजय कौशिक 'विज्ञात'
आपकी लेखनी को नमन गुरुदेव
ReplyDeleteबहुत ही शानदार सुन्दर बिंम्ब से सुसज्जित शानदार नमन आपको🙏🙏🙏🙏👌👌👌
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना 👌👌👌
ReplyDeleteअति उत्तम आ0
ReplyDeleteव्यंजना नवगीत ओढ़े
ReplyDeleteटीस की अनुपालना में
शक्ति शाब्दिक झूलती है
लक्षणा की टालना में
फिर अभिधा भी सिसकती
जब खटकते गीत मेरे।।बेहद खूबसूरत नवगीत आदरणीय 👌👌
अद्भुत नवगीत
ReplyDeleteशानदार बिम्ब
उत्तम सृजन हार्दिक बधाई गुरु देव जी
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