नवगीत
हिय व्यथित चित्कारता
संजय कौशिक 'विज्ञात'
मापनी ~ स्थाई / पूरक पंक्ति ~ 12
अन्तरा 16/16
हिय व्यथित चित्कारता।।
आहत क्रंदन शोर मचाता
चीत्कारों को कौन सुनेगा
भावों की ये नदिया बहती
वर्ण पिघलते दोष लगेगा
और सावन मारता।।
हृदय विलापी राग सुनाकर
कंठ हुए अवरुद्ध पुकारें
नृत्य करें विकलांग इशारे
गायन के सब स्वर झनकारें
कष्ट भी दुत्कारता।।
जकड़न तोख हथकड़ी झड़के
सम्मोहन की टूटी बेड़ी
पाश बिलखता मोह संकुचित
और विदारक चीखें छेड़ी
व्यंजना को धारता।।
©संजय कौशिक 'विज्ञात'
सादर नमन 🙏
ReplyDeleteबहुत सुंदर लेखन 💐💐💐💐
वाह अद्भुत 👌👌👌👌 हार्दिक बधाई आदरणीय 🙏
ReplyDeleteवाह अद्भुत लेखनी बहुत बधाई नमन आपको🙏🙏🙏
ReplyDeleteशानदार
ReplyDeleteआपकी लेखनी को नमन
बहुत सुंदर सृजन आदरणीय गुरु देव 🙏💐 नमन 💐🙏
ReplyDeleteसुंदर काव्य सृजन 🙏🙏
ReplyDeleteहृदयस्पर्शी लेखन👌👌💐💐🙏🙏
ReplyDeleteअद्भुत हृदयस्पर्शी सृजन आदरणीय👏👏👏
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना
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