संस्मरण कैसे लिखें ?
संजय कौशिक 'विज्ञात'
यदि यह प्रश्न मन में उठ रहा है तो विस्तृत जानकारी के लिए पूरी पोस्ट पढ़ें।
संस्मरण:-
संस्मरण साहित्यिक विधा की परिभाषा इतनी ही समझें कि इस विधा में में कल्पना अथवा अनुभूति का कोई स्थान नहीं होता। कल्पना का समावेश होते ही संस्मरण साहित्यिक विधा अपने मूल केंद्र से भटक कर नष्ट हो जाती है। अतः इस विधा के मूल केंद्र बिंदु का सौंदर्य और आकर्षण भूतकाल की यथार्थ स्मृति पर ही निखरता है। इसमें भूतकाल की उन्हीं घटनाओं की चर्चा होती है जो जीवन में घट चुकी हैं, यथार्थ हैं तथा प्रामाणिक हैं।
संस्मरण का मुख्य केंद्र बिंदु वैयक्तिकता माना जाता है। इसके बिना संस्मरण का लेखन असम्भव कहा जाता है। संस्मरण विधा में लेखक के द्वारा उसके अपने जीवन की उस घटना का वर्णन किया जाता है जिस घटना को वह लिखने के समय तक भुला नहीं पाया है। जो आज भी उसके मन तथा मस्तिष्क में तरोताजा है और संस्मरण लेखक घटना को ज्यों की त्यों अपने लेख में उकेर कर पाठक के समक्ष प्रस्तुत करता है। पाठक द्वारा उस घटना को पढ़कर उस घटना से जुड़ाव अनुभव करता है।
वैयक्तिकता को स्पष्ट करती हुई "रामवृक्ष बेनीपुरी" की ’माटी की मूरतें’ नामक पुस्तक में इसी ओर संकेत किया है। उनके अपने शब्दों में, ’’हजारीबाग सेन्ट्रल जेल के एकान्त जीवन में अचानक मेरे गाँव और मेरे ननिहाल के कुछ लोगों की मूरतें मेरी आँखों के सामने आकर नाचने और मेरी कलम से चित्रण की याचना करने लगी।
उनकी इस याचना में कुछ ऐसा जोर था कि अन्ततः यह ’माटी की मूरतें’ तैयार होकर रही। हाँ, जेल में रहने के कारण बेजमासा भी इनकी पाँत में आ बैठे और अपनी मूरत मुझसे गढ़वा ली।’’ इस प्रकार यह स्पष्ट है कि वैयक्तिकता संस्मरण विधा का एक महत्वपूर्ण उपकरण है।
संस्मरण साहित्यिक विधा की विशेषता यह है कि यह विधा बहुत ही लचकदार है। इसके तत्त्व और गुण अन्य अनेक विधाओं में मिलते जुलते हैं। जैसे रेखाचित्र, जीवनी, रिपोर्ताज आदि विधाओं और संस्मरण को एक समझा जाता रहा है। संस्मरण और रेखाचित्र विधा एक-दूसरे के साथ कई समानताओं में इस तरह जुड़ी हुई हैं कि एक-दूसरी विधा के अंतर को पाट पाना सरल कार्य नहीं लगता। महादेवी वर्मा जी की ‘स्मृति की रेखाएं’ इसका ज्वलंत उदहारण है। ‘स्मृति’ शब्द जहाँ उस कृति को संस्मरण की ओर ले जा रहा है वहीं ‘रेखाएं’ रेखाचित्र विधा की ओर .... संस्मरण तथा रेखाचित्र की साहित्यिक विधा के अंतर के विषय में प्रसिद्ध साहित्यकार महादेवी वर्मा जी ने स्वयं कहा था कि
"संस्मरण’ को मैं रेखाचित्र से भिन्न साहित्यिक विधा मानती हूँ। मेरे विचार में यह अन्तर अधिक न होने पर भी इतना अवश्य है कि हम दोनों को पहचान सकें।"
मानव जीवन को प्रभावित तथा आकर्षक लगने वाले आचरित आदर्श जो पाठक को प्रभावित कर सकते हैं। आशा-निराशा, जय-पराजय, सुख-दुख के अनेक क्षण जिन्हें निकट से देखने तथा समझने पर जीवनव्यापी प्रभाव छोड़ने में सक्षम हों उनके सम्बन्धों में साहित्यिक भाषा में लेखन ही साहित्यकार को एक विशिष्ट स्थान तथा दृश्य बोध देता है।
संस्मरण विधा कम औपचारिक, अधिकतर अनुकूल कार्य लेखन की विधा है जो सटीक और तथ्यों पर आधारित विवरण को धारण करने वाली है। यह विधा कल्पना तथा संरचना रहित है अर्थात "संस्मरण विधा किसी भी बिंदु से प्रारम्भ हो सकती है।"
हम जब संस्मरण विधा के विषय में विस्तार से जानने का प्रयास करते हैं तब यह जान पाते हैं कि संस्मरण-लेखन हमें मुख्यतया दो रूपों में प्राप्त होते हैं- इसका प्रथम रूप यह है जिसमें लेखक दूसरों के विषय में लिखता है तथा द्वितीय रूप ऐसा है जिसमें वह स्वयं अपने विषय में लिखता है। प्रथम प्रकार के लेखन को रेमिनिसेंस कहते हैं। और दूसरे प्रकार के लेखन को मेमोयर। यद्यपि मेमोयर में लेखक अपने बारे में लिखता है, किन्तु यह साहित्यिक विधा आत्मकथा अर्थात जीवनी से सर्वथा भिन्न ही रहती है। यह भिन्नता आकारमय न होकर तत्वमय होती है।
हिन्दी भाषा के संस्मरण लेखकों ने स्वीकार भी किया है कि उनके स्मृति चित्रों में उनके जीवन-सूत्र भी अनुस्यूत है। उदाहरण के लिए महादेवी वर्मा ने इस सम्बन्ध में लिखा है कि
’’इस स्मृतियों में मेरा जीवन भी आ गया है। यह स्वाभाविक भी था।"
जिस विषय, घटना तथा व्यक्ति का संस्मरण लिखा जाना है वो घटना अथवा विषय भी प्रेरक प्रसंग कर रूप में अवश्य होना चाहिए जिसके कारण हमारे जीवन में परिवर्तन आ सका है उस घटना को पाठक पढ़ें तो वे भी उस परिवर्तन के क्षण से जुड़ सकें।
"कुछ संस्मरण स्तरीय नहीं देखे जाते लेखक अपनी महानता सिद्ध करने के लिए लिखते हैं कि लेखक ने किसी भिखारी को 100 रु की भीख दी और स्वयं को कर्ण बताने जैसा"
वो गौरव गाथा हो सकती है या किसी बड़े कार्य की शुरुवात पर एक बार का सहयोग और आजीवन दान पुण्य त्यागना उत्तम संस्मरण हो सकता है क्या इसका निर्णय लेखक और पाठक स्वयं करें ...
डाॅ० शान्ति खन्ना संस्मरण को परिभाषित कुछ इस प्रकार करते हैं ’’जब लेखक अतीत की अनन्त स्मृतियों में से कुछ रमणीय अनुभूतियों को अपनी कोमल कल्पना से अनुरंजित कर व्यंजनामूलक संकेत शैली में अपने व्यक्तित्व की विशेषताओं से विशिष्ट कर रमणीय एवं प्रभावशाली रूप से वर्णन करता है, तब उसे संस्मरण कहते है।’’
सभी के जीवन में अनेक घटना ऐसी घटित होती हैं कि वे लेखन की प्रेरणा स्वयं देती हैं। उन्हें पृष्ठों पर जब उकेरा जाता है उसी दिन से उनकी कालजयी होने की यात्रा प्रारम्भ हो जाती है। कारण वे रचना लेख आदि लिखे ही इतने मन से जाते हैं लेखक लिखते समय उनमें डूबकर लिखता है परिणाम स्वरूप पाठक उन गहराइयों में डूब भी न पाए तो तट बड़े ही रमणीय, लुभावन तथा आकर्षक होते हैं।
डाॅ० शिवप्रसाद सिंह ने संस्मरण विधा की परिभाषा कुछ नये ढंग से की है
’’संस्मरण ललित निबन्ध का बहुत ही लोकप्रिय प्रकार है। बीते काल और घटना को बार-बार दुहाकर न सिर्फ मनुष्य संतोष पाता है, बल्कि वह अपने वातावरण में घटित समसामयिकता की अतीत के चित्रों से तुलना करके अपने को जाँचता-बदलता रहता है। संस्मरणात्मक निबन्ध मुख्य तथा महान व्यक्तियों के सानिध्य में अपने को तथा समाज को रखकर देखने की नई दृष्टि देते है।’’
निःसन्देह पुराने लिखे हुए को पुनः अपने नाम से प्रकाशित करने से कभी रचनाकार का धर्म नहीं निभाया जा सकता।
बाबू गुलाबराय संस्मरण विधा लेखन के लिए प्रेरित करते हुए संस्मरण विधा के स्वरूप को कुछ इस प्रकार से प्रतिपादित करते हैं
’’वे (संस्मरण) प्रायः घटनात्मक होते हैं, किन्तु वे घटनाएँ सत्य होती है और साथ ही चरित्र की परिचायक भी उनमें थोङा सा चटपटेपन का भी आकर्षण होता है। संस्मरण चरित्र के किसी एक पहलू की झाँकी देते है।’’
डाॅ० गोविन्द 'त्रिगुणायत' संस्मरण की परिभाषा कुछ इस प्रकार अभिव्यक्त करते हैं
’’भावुक कलाकार जब अतीत की अनन्त स्मृतियों में से कुछ रमणीय अनुभूतियों को अपनी कोमल कल्पना से अनुरंजित कर व्यंजनामूलक शैली में अपने व्यक्तित्व की विशेषताओं से विशिष्ट कर रोचक ढंग से यथार्थ रूप से प्रस्तुत कर देता है, तब उसे संस्मरण कहते हैं।’’
संस्मरण पढ़कर इस संस्मरण से जुड़े पात्रों के व्यक्तित्व के विषय में समझने तथा उनके प्रति निर्णय लेने की स्वतंत्रता पाठक के पास स्वयं की होती है.... पाठक के लिए कल्पना के माध्यम से अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनते हुए अधिक बढ़ा चढ़ा कर वर्णन किया जाएगा जो यथार्थ से परे हो तो ऐसे में पाठक समझ लेता है कि संस्मरण में कहाँ-कहाँ कल्पना का प्रयोग किया गया है कारण कल्पना के आते ही यथार्थ की पटड़ी से उतर जाएगी संस्मरण की लोहपथगामिनी जो पाठक और दर्शक को कभी भी आकर्षित नहीं कर सकती। अतः अपने विषय में बताने की आवश्यकता नही होती कि आप कितने महान हैं।
संस्मरण विधा के विषय में विस्तार से समझ चुके हैं आइये अब संस्मरण विधा की मुख्य विशेषताएँ एक बार पुनः स्मरण कर लेते हैं :-
संस्मरण लेखक के स्मृति पटल पर अंकित किसी विशिष्ट व्यक्ति के जीवन की घटना का विवरण है। संस्मरण यथार्थ का दर्पण होता है। संस्मरण संक्षिप्त रूप होता है। संस्मरण किसी महापुरुष या विशिष्ट घटना से संबंधित होता है।
संस्मरण लेखन का प्रयास कर रहे सभी लेखक साहित्यिक भाषा का प्रयोग करते हुए यदि इन बातों का ध्यान रखेंगे तो उनके संस्मरण स्तरीयता अवश्य प्राप्त करेंगे।
#संजयकौशिक'विज्ञात'
विधा पर सटीक जानकारी
ReplyDeleteसंस्मरण लिखने में सहायक, बहुत ही काम की पोस्ट 👏👏👏👏👏👏
ReplyDeleteसंस्मरण के विषय में उत्तम जानकारी आ.
ReplyDeleteअति उत्तम जानकारी 👌🙏
ReplyDeleteजय हो गुरुदेव
ReplyDeleteनमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (13-12-2021 ) को 'आग सेंकता सरजू दादा, दिन में छाया अँधियारा' (चर्चा अंक 4277 )' पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। रात्रि 12:01 AM के बाद प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।
यदि हमारे द्वारा किए गए इस प्रयास से आपको कोई आपत्ति है तो कृपया संबंधित प्रस्तुति के अंक में अपनी टिप्पणी के ज़रिये या हमारे ब्लॉग पर प्रदर्शित संपर्क फ़ॉर्म के माध्यम से हमें सूचित कीजिएगा ताकि आपकी रचना का लिंक प्रस्तुति से विलोपित किया जा सके।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
संस्मरण एक आकर्षक विषय है परंतु ज्ञान के अभाव में उसमें वो आकर्षण नही आ पाता जो आना चाहिए। इस पोस्ट के माध्यम से अनेक प्रश्नों के उत्तर मिल गए...सादर धन्यवाद गुरुदेव 🙏
ReplyDeleteबहुत ही ज्ञानवर्धक और उपयोगी जानकारी 🙏
ज्ञानवर्धक बहुत बहुत ही उपयोगी जानकारी
ReplyDeleteउपयोगी पोस्ट।
ReplyDeleteविस्तृत जानकारी।
अप्रतिम।