नवगीत
इक अधूरा गीत उसका
संजय कौशिक 'विज्ञात'
मापनी ~ 14/14
तोड़ कर अनुबंध जीवन
पूर्ण करके श्वास लेटा
इक अधूरा गीत उसका
कोयलों ने यूँ लपेटा।।
क्रूर फंदे काल लेकर
नित्य ही भरमा रहा है
एक अजगर बन डराता
पाश क्रीड़ा ने कहा है
रिक्त गुब्बारा हवा का
भर चुका है आज पेटा।।
मृत्यु की ये ओढ़नी भी
पारदर्शी दिख रही है
ओढ़ लेटी देह कबकी
मौन श्वासों ने कही है
इस धरा की गोद को फिर
व्यंजनाओं ने चपेटा।।
अंत दर्शन चीखता सा
नभ पखेरू छोड़ रोये
प्रिय मनोहर मीत क्रंदन
रक्त व्याकुल नेत्र खोये
देख कर घुट-घुट मरा है
प्राण ने आतंक मेटा।।
संजय कौशिक 'विज्ञात'
सादर नमन गुरुदेव 🙏
ReplyDeleteकरुण रस में डूबा हृदयस्पर्शी नवगीत 👌
एक से बढ़कर एक बोलते बिम्ब 👌
हृदयस्पर्शी नवगीत आदरणीय🙏🙏🙏 सादर नमन
ReplyDeleteकरूण रस की शानदार प्रस्तुति गुरु देव जी । प्रणाम
ReplyDeleteबहुत सुन्दर नवगीत गुरुदेव सादर प्रणाम 🙏🙏🙏
ReplyDeleteबहुत ही शानदार रचना
ReplyDeleteनमन गुरु देव 🙏💐
खूबसूरत, हृदयस्पर्शी नवगीत👏👏👏👏👏
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