नवगीत
दायज
संजय कौशिक 'विज्ञात'
मापनी 16/14
शोर दहेज करे नित भारी
लूट लिया जग सारे को
नव्य विवाहित आहत बहुएँ
बिलखें एक सहारे को।।
अग्नि हवन क्रव्याद भूमिका
आज निभा कर माच रही
योजक गुण गठजोड़ा मिथ्या
आग लालची नाच रही
फेरे ले दायज फिर बाँधे
मंगलसूत्र पियारे को।।
कन्यादान दहेज प्रथा ने
शोषण करके घात रची
मान प्रतिष्ठा मद ने मारी
झूठ अहम सी बात बची
कट जाते फिर समधी समधन
काट न पाए आरे को।।
प्रीत मिलन सम खीर मधुर सी
हितकर ये सबसे प्यारी
नूण दहेज हरण कर खुशियाँ
खो देता रंगत सारी
रोता आज समाज सकल है
मीठे कम इस खारे को
#संजयकौशिक'विज्ञात'
नमन गुरुदेव 🙏
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर 👌
विचारणीय नवगीत...मार्मिक...आकर्षक और प्रेरणादायक 👌
बहुत सुन्दर नवगीत शानदार विचारणीय प्रणाम आपको
ReplyDeleteकड़वी हकीकत की प्रस्तुति
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर और शानदार रचना 👌👌👌💐
ReplyDeleteनमन गुरु देव 🙏💐
यथार्थ को दिखाती रचना 🙏🙏🙏
ReplyDeleteबहुत सुंदर नवगीत👏👏👏👏
ReplyDeleteबहुत सुंदर नवगीत
ReplyDeleteवैचारिक सृजन आदरणीय,आकर्षक नवगीत👏👏👏
ReplyDeleteबेहतरीन नवगीत आदरणीय 🙏
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ReplyDeleteअद्भुत !
ReplyDeleteहृदय स्पर्शी नवगीत।
निशब्द करती व्यंजनाएं।