संजय कौशिक 'विज्ञात'
काव्य में बिम्ब क्या होते हैं ?
बिम्ब शब्द का अर्थ "मूर्त रूप प्रदान करना" साधारण शब्दों में जहाँ तक मैनें बिम्ब को समझा है उसके अनुसार बिम्ब की व्याख्या इस प्रकार से है- '"काव्य में सटीक बिम्ब के प्रयोग से रचना में अलंकार अनायास ही प्रकट होते चले जाते हैं जिससे काव्य की मूर्ति का शृंगार अत्यंत ही अनुपम सा दिखने लगता है।" नवगीत विधा सहित काव्य की समस्त विधाओं में लेखन से मूर्तीकरण के लिए सटीक बिम्ब योजना होती है।
जबकि डाॅ. देवीशरण रस्तोगी के अनुसार "बिम्ब प्रायः अलंकारों की सहायता लेते और इसी प्रकार अलंकार अन्ततः बिम्ब को ही लक्ष्य करते हैं।"
बिम्ब एक ऐसे शब्द चित्र को कहा जाता है जो कल्पना के माध्यम से ऐन्द्रिय अनुभवों के आधार पर निर्मित होता है।
बिम्ब- विधान हिन्दी साहित्य में कविता की एक पद्धति है। हिन्दी कविता में जैसे ही विषय बदले, वस्तु बदली और कवि की जीवन को जीने की कला के प्रति दृष्टि बदली वैसे ही शिल्प के क्षेत्र में रूप-विधान के नये आयाम भी विकसित होते आये हैं।
डाॅ. केदारनाथ सिंह के मतानुसार बिम्ब की परिभाषा कुछ इस प्रकार बनके प्रकट होती है ’बिम्ब यथार्थ का एक सार्थक टुकङा होता है। वह अपनी ध्वनियों और संकेतों से भाषा को अधिक संवेदनशील और पारदर्शी बनाता है। वह अभिधा की अपेक्षा लक्षणा और व्यंजना पर आधारित होता है।"
बिम्ब का प्रयोग साहित्य में प्रारम्भ से होता आ रहा है। प्रतीकों के विपरीत बिम्ब इन्द्रिय-संवेद्य होते हैं। अर्थात् उनकी अनुभूति आँख, कान, नाक तथा जिह्वा आदि किसी न किसी इन्द्रिय से जुड़ी रहती है। इसीलिए साहित्य में हमें दृश्य-बिम्ब के साथ-साथ श्रव्य, घ्राण और स्पर्श-बिम्ब का प्रयोग भी मिलता है। विश्व के परिवेश से रचनाकार कुछ दृश्य, कुछ ध्वनियाँ, कुछ स्थितियाँ उठाता है और अपनी कल्पना, संवेदना, विचार तथा भावना के योग से उन्हें तराश कर बिम्ब का रूप देता है। अपने कथ्य को संक्षेप, सघन रूप में प्रस्तुत करने के लिए, अपनी बात का प्रभाव बढ़ाने के लिए और किसी स्थिति को जीवन्त कर पाठक के सामने रख देने के लिए रचनाकार बिम्बों का प्रयोग करता है।
प्रश्न यह है कि कविता में बिम्बों और प्रतीकों का प्रयोग क्यों आवश्यक है? वस्तुतः बिम्ब और प्रतीक हमें अपनी बात सरलता से और चिर परिचित ढंग से कहने में सहायक होते हैं । यह कविता को अनावश्यक वर्णनात्मकता से बचाते हैं। पाठक पूर्व से ही उस बिम्ब के आंतरिक गुण से परिचित होते हैं इसलिए वे उन बिम्बों के मध्य से कही गयी बात को सरलता से आत्मसात कर लेते हैं । बिम्ब काव्यात्मकता का विशेष गुण है। इसके अभाव में कविता नीरस गद्य की तरह प्रतीत हो सकती है । इसके अलावा बिम्ब कविता को सजीव बनाते हैं, जीवन के विभिन्न आयामों को हम बिम्बों के मध्य से सटीक ढंग से प्रस्तुत कर सकते हैं। साहित्य की भाषा में बिम्ब अनेक प्रकार के बताये गए हैं जिनमे दृश्य, श्रव्य, स्वाद, घ्राण, स्पर्श आदि प्रमुख है, ऐंद्रिकता इनका केन्द्रीय भाव है।
सी.डी. लेविस के मत से बिम्ब की परिभाषा अलंकृत रूप में कुछ इस प्रकार प्रकट होती है "काव्य बिम्ब एक ऐसा भावात्मक चित्र है जो रूपक आदि का आधार ग्रहण कर भावनाओं को तीव्र करता हुआ काव्यानुभूति को सादृश्य तक पहुँचाने में समर्थ है।"
वस्तुतः बिम्बों का महत्त्व कवि सदा से स्वीकार करते हैं।
बिम्ब को पदचित्र, शब्दचित्र और 'मूर्त विधान' भी कहा जाता है। हिंदी के छायावादी कवि परिवार बिम्ब इतने आकर्षक और लुभावने थे कि समस्त विश्व के कवि बिम्ब के मोहिनी पाश के बंधन में बंधते दिखाई देने लगे। छायावाद ही बिम्ब शैली का निर्माण कर्त्ता कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। पाश्चात्य देशों ने भी बिम्ब को 'इमैजियम' नाम से अपनी कविता में प्रयोग किया। फिर तो यह एक आन्दोलन के रूप में चल पड़ा था। प्रायः बिम्ब प्रयोग के तीन प्रमुख तत्व माने जाते हैं-
1 काव्य में वस्तु के संप्रेषण के लिए
2 ऐसे शब्दों का सर्वथा परिहार जो काव्य को अर्थवान बनाने में योग नहीं देते।
3 काव्य निर्माण में संगीतात्मक नियम का निर्वाह, अर्थात् उसकी लय को घड़ी के लोलक के नियम से न बाँधना।
प्रेषणगत इन लक्ष्यों के अतिरिक्त काव्य में बिंब ग्रहण की दो मुख्य उपयोगिताएँ होती हैं-
1 इंद्रियगत अनुभव (sensual experience)
2 अलंकृति।
पहले के अंतर्गत पाठक कविता के विविध रूपों से इंद्रियगत अनुभव करता है। यानी आँख, कान, स्पर्श आदि से इंद्रिय बोध करता है। दूसरे के अन्तर्गत बिंब से काव्य सौंदर्य बढ़ता है। इसमें संक्षिप्तता, व्यंजकता और भास्वरता आदि शामिल है। दोनों का लक्ष्य संप्रेषणीयता को बढ़ाना ही है। इसके लिए कवि विशेष भाषा का प्रयोग करता है। शब्दों की जोड़ से बिंब का निर्माण करके वस्तु संप्रेषण करता है।
डाॅ. नगेन्द्र बिम्ब की परिभाषा कुछ इस प्रकार से प्रेषित करते है। जिसने बिम्ब की गुत्थी को और भी सरल कर दिया है
"काव्य बिम्ब शब्दार्थ के माध्यम से कल्पना द्वारा निर्मित एक ऐसी मानस छवि है जिसके मूल में भाव की प्रेरणा रहती है।"
बिम्ब ग्रहण सरल कार्य भी है और संश्लिष्ट कार्य भी। इसमें कवि की प्रतिभा की अग्नि परीक्षा होती है। संश्लिष्ट होने पर बिंब दुरूह भी हो सकता है। वह भी भाषा प्रयोग का ही परिणाम है।
काव्य में प्रतीक क्या होता है ?
प्रतीक किसी सूक्ष्म भाव, विचार या अगोचर तत्त्व को साकार करने के लिए प्रयुक्त होता है।जिसका शाब्दिक अर्थ चिह्न कहा जाता है। प्रतीक अप्रस्तुत विषय का प्रतिनिधित्व करने वाले प्रस्तुत विषय को कहा जाता है। पढ़ते अथवा सुनते ही मन में किसी न किसी भावना को जाग्रत कर देने वाले विषय को प्रतीक कहते हैं।
कवि नगेन्द्र के अनुसार ’’उपमान जब किसी पदार्थ विशेष के लिए रुढ़ हो जाता है तब प्रतीक बन जाता है।’’
मेरी एक रचना उल्लाला छंद में देखें काले कृष्ण का प्रतीक है तथा ज्योत्स्ना राधा का प्रतीक है वहीं द्वितीय पद में लता राधा का प्रतीक तो तरुवर कृष्ण का प्रतीक स्पष्ट होता है पढ़ें इस रचना को और समझने का प्रयास करें ...
*उल्लाला छंद*
लीला रचते काले सदा, नित ज्योत्स्ना के साथ में।
यमुना तट पर लिपटे लता, फिर तरुवर के हाथ में।।
संजय कौशिक 'विज्ञात'
"छंद वर्ण के आँगन गूँजे" संजय कौशिक 'विज्ञात'- आँगन शब्द तथा शिल्प का प्रतीक है और गूँजे लेखन का प्रतीक है। कवयित्री नीतू ठाकुर विदुषी के नवगीत "विदुषी व्यंजना" विदुषी कविता तथा व्यंजना उसमें निहित कथन शक्ति है। कवयित्री अनिता सुधीर आख्या का नवगीत "देहरी फिर गाने लगी" इसमें देहरी के गीत शादी से संबंधित हैं जो उत्सव का प्रतीक है। कवयित्री कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा' का नवगीत "मन की वीणा" में वीणा मधुर संगीत का प्रतीक है और मनसे जुड़ा है तो हर्ष का प्रतीक है। कवयित्री अमिता श्रीवास्तव 'दीक्षा' का नवगीत "द्वार पर दस्तक" यह स्पष्ट रूप से हृदय के द्वार पर उमड़ती भावनाओं का प्रतीक है। कवि परमजीत सिंह कोविद कहलूरी का नवगीत "कोविद गीतांजलि" कोविद अर्थ ज्ञानी और उसके अंजुली भर गीतों की भेंट समर्पण का प्रतीक है। कवयित्री पूनम दुबे 'वीणा' का नवगीत "वीणा के खनकते गीत" में वीणा सुर तथा खनकते गीत लय बद्ध प्रस्तुति का प्रतीक है।
भारतीय साहित्यिक दृष्टिकोण से प्रतीक शब्द शक्ति लक्षणा के विकसित रूप में स्वीकार किया गया है। तथा कुछ विद्वान इसका आविर्भाव अन्योक्ति अलंकार के रूप में करते हैं। जबकि आचार्य शुक्ल ने इसे चित्रभाषावाद ही माना है।
प्रतीक के भेद कितने होते है ?
आइए ये भी जानते है
प्रतीकों के भेद –
1. भावोत्प्रेरक प्रतीक – पाटल, कमल, सूर्य, चन्द्र, कुमुदिनी, रात की रानी,
उदाहरण-
कंटक के आंचल से निकला,
खिलता सा पाटल हँसता।
©संजय कौशिक 'विज्ञात'
2. विचारोत्पादक प्रतीक – कैकेई, मंथरा, द्रोपदी, शिखण्डी, परशुराम, भीष्म
उदाहरण-
आज जीने के लिये
इक शिखण्डी चाहिये
मातृ नारी शक्ति का
रूप चण्डी चाहिये
©संजय कौशिक 'विज्ञात'
3 वैयक्तिक प्रतीक – किसी विशेष के संदर्भ को उजागर करते हुए वैयक्तिक प्रतीक कहलाते हैं। जैसे नलिनी, माली, सैनिक
फूलि-फूलि चुनि लिए, काल हमारी बार।
उदाहरण-
पीठ टाँग ले बस्ता सैनिक
संबल बन जाएगा मित्र
©संजय कौशिक 'विज्ञात'
4. परम्परागत प्रतीक – परंपरागत प्रतीक मुहावरेदार सशक्त कथन में प्रयोग होते दिखाई देते हैं जो परम्परा का निर्वहन करते हैं जिनका दृश्य तर्क संगत तो होता ही है साथ ही वह अपने प्रयोग से अपनी उपास्थिति को श्रेष्ठ बनाता है।
उदाहरण-
खाट की फिर पांत रोई
टूट कर उल्टी पड़ी
दे गया है मेढ़ घर का
कष्ट क्रंदन की घड़ी।।
©संजय कौशिक 'विज्ञात'
दीवारों ने कान दे
सुनी सखी की बात।
©अनिता सुधीर 'आख्या'
5. परम्परामुक्त प्रतीक – सर्प, मधुमय बसन्त
जिन प्रतीकों को नियमित परम्परा से मुक्त पाया जाता है उन्हें परम्परामुक्त प्रतीक कहा जाता है ... कल्पना के माध्यम से परंपराओं का खण्डन करने वाले प्रतीक इस श्रेणी में आते हैं जैसे सर्प के पंख, दुष्ट साधु जो शब्द परम्परा से हटकर चिह्न बनाता दिखाई दे।
उदाहरण-
डाल चंदन की पिपासित
रोटियाँ जलने लगी हैं
©संजय कौशिक 'विज्ञात'
राख से तम साफ करके
इक नई आभा दिखेगी l
©संजय कौशिक 'विज्ञात'
पात्र छलनी हाथ में दे
क्रूर विधना लूटती सी।
©कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'
6. भावपरक प्रतीक – छायावादी प्रतीक
दुष्ट दुशासन हरता अम्बर,
देख द्रोपदी बिलखे अम्बर।।
कष्ट तड़पता यूँ दम तोड़े।
खण्डित श्वासें भी मुख मोड़े।।
रक्तिम अभिमन्यु पड़ा धरणी
कालबली के पड़ते कोड़े।।
©संजय कौशिक 'विज्ञात'
तिलमिलाता कष्ट से मन
कँपकँपाते हैं अधर।
©इन्द्राणी साहू 'साँची'
व्याख्यात्मक प्रतीक – जो प्रतीक अपने भीतर रहस्य समाहित किए हुए हों और व्याख्या से समझ आ सकें ऊपर से साधारण दिखने वाले प्रतीक अपने भीतर मर्म समेटे इस श्रेणी में आते हैं जैसे - इंद्रधनुष, गिरगिट, शेर, गीदड़
उदाहरण-
गीदड़ भभकी शत्रु की,
लगे सर्प फुंकार।
©संजय कौशिक 'विज्ञात'
प्रतीकपरक प्रतीक – कमल, चाँदनी
डाॅ. रामस्वरूप चतुर्वेदी की इन पांक्तियों के माध्यम से गागर में सागर का परिवेश झलकता है "कविता के लिए शाब्दिक प्रतीक होना एक आधारभूत शर्त है पर हर शाब्दिक प्रतीक कविता नहीं होता।" इसे सदैव स्मरण रखना चाहिए।
प्रतीक विषय को जितना और जिस प्रकार से मैंने समझा आप सभी के समक्ष सरलता से रख दिया है । विश्वास है आप अब प्रतीक के विषय में अपने ज्ञान को और विस्तृत कर लेंगे।
विषय के आधार पर प्रतीकों के निम्नलिखित भेद हैं-
1 प्राकृतिक प्रतीक
2 पौराणिक प्रतीक
3 पौराणिक प्रतीकों का आधुनिकीकरण
4 रूढ़ प्रतीक
5 नवीन प्रतीक
1 प्राकृतिक प्रतीक-
पंचतत्वों से निर्मित मानव का प्रकृति अभिन्न भाग है। इनका संबंध इतना गहन है की एक दूसरे बिना जीवन की कल्पना करना भी असंभव है। यही कारण है कि प्रकृति का प्रत्येक दुख साहित्यकार को स्वयं का दुख लगता है और बड़ी ही सरलता से प्रकृति से अपने प्रतीक चुनकर सहज ही अपने भावों को अभिव्यक्त कर देता है. प्रकृति से चुने हुए साहित्य में प्रयुक्त प्रतीक ही प्राकृतिक प्रतीक कहलाते हैं जैसे आकाश, सूर्य, धरती, वृक्ष, आदि.
उदाहरण-
लड़ रही नभ के तिमिर से
ये अकेली रात काली
उपर्युक्त पंक्तियों में रात ऐसे स्त्री का प्रतीक है, जो निरंतर परिस्थितियों से संघर्ष करती जा रही है जैसा यहाँ मूर्त के लिये मूर्त प्रतीक का प्रयोग किया गया है.
2 पौराणिक प्रतीक-
पौराणिक प्रतीकों से अभिप्राय ऐसे प्रतीकों से है जो चिरप्रचलित रामायण, महाभारत के पौराणिक आख्यानों को आधार बनाकर साहित्य में प्रयुक्त होते हैं.
उदाहरण-
द्रोपदी की सिसकियों सी
वेदना है आज की।।
उपर्युक्त पंक्तियों में द्रोपदी के पौराणिक प्रसंग को प्रतीक बनाकर वेदना की तीव्रता को दर्शाने का प्रयास किया गया है। द्रोपदी ने अपने जीवन में जिन परिस्थितियों को देखा और अपमान भरी यातनाओं को सहन किया उसे दुख की पराकाष्ठा कह सकते हैं इसी लिए यहाँ पर उसका प्रयोग कम शब्दों में अपनी बात कहने के लिए उपयुक्त है।
भक्ति का उत्तम उदाहरण
दिख रहा हनुमान जैसा।।
उपर्युक्त पंक्तियों भक्ति के उत्कृष्ट उदाहरण हनुमान जी का उल्लेख कर अमूर्त भावों को मूर्त रूप दिया गया है। यह नाम पर्याप्त है किसी भी भक्त की निष्ठा और समर्पण को प्रमाणित करने के लिए।
3 पौराणिक प्रतीकों का आधुनिकीकरण-
आधुनिक साहित्य में पौराणिक प्रतीकों की आधुनिक संदर्भ में नई व्याख्या भी की गयी है।
उदाहरण-
एक ब्रह्मास्त्र बनकर
नित्य कोरोना निगलता।।
उपर्युक्त पंक्तियों में महाशक्तिशाली ब्रह्मास्त्र का आधुनिकीकरण भीषण रोग कोरोना के रूप में किया गया है। जिस प्रकार ब्रह्मास्त्र का एक प्रहार समस्त सृष्टि का विनाश कर सकता है उसी प्रकार समूचा विश्व इस महामारी के प्रकोप से पीड़ित है जो असंख्य प्राणों की बली ले चुका है।
दैत्य ओमिक्रोन ऐसा
एक भस्मासुर भयंकर।।
उपर्युक्त पंक्तियों में भस्मासुर का आधुनीकीकरण किया गया है अर्थात् जैसे भस्मासुर के स्पर्श मात्र से व्यक्ति राख में परिवर्तित हो जाता था उसी प्रकार ओमिक्रोन दैत्य सा रूप धारण कर समस्त मानव जाति को राख बनाने का प्रयास कर रहा है।
4 रूढ़ प्रतीक-
कुछ प्रतीक ऐसे हैं जो किसी विशेष अर्थ के लिये रूढ़ हो गये हैं, ऐसे प्रतीक रूढ़ प्रतीक कहलाते हैं.
उदाहरण-
यूँ अदालत गूँजती हैं
इक शपथ बन झूठ गीता।।
गीता ज्ञान, सत्य और धर्म का रूढ़ प्रतीक मानी जाती है जिसका दुरुपयोग आज समाज में दिख रहा है जो समाज की मिटती नैतिकता और संवेदना का प्रतीक है।
यूँ घरों में गूँजती है
फिर महाभारत पुरानी।।
महाभारत यह शब्द गृह-युद्ध के लिये रूढ़ प्रतीक बन गया है, उपर्युक्त पंक्तियों में इसी रूढ़ प्रतीक का प्रयोग कर के कलह की तीव्रता को दर्शाया गया है।
चीरहरण भी नित्य बिलखते
याद द्रोपदी को करके।।
महाभारत के बहुचर्चित प्रसंग चीरहरण जो एक रूढ़ प्रतीक माना जाता है उसके माध्यम से समाज में महिलाओं के साथ घटित हो रहे अपराध के शोक को दर्शा रहा है। जिस प्रकार द्रोपदी ने अपना प्रतिशोध लिया उसी प्रतिशोध की अपेक्षा प्रत्येक चीरहरण को है जो न्याय की आस में बिलख रहा है।
5 नवीन प्रतीक-
नवीन प्रतीक ऐसे प्रतीक हैं, जिनका प्रयोग आधुनिक साहित्य से पहले नहीं हुआ है.
उदाहरण-
काठ की गाड़ी खड़ी
भाव के आभार तक।
ले महक इस मार्ग से
चंद्र के आगार तक।।
उपर्युक्त पंक्तियाँ नूतन प्रतीक कहे जाएंगे क्योंकि इनका प्रयोग आधुनकि साहित्य से पहले नही हुआ है। मानव जीवन को सुखमय बनाने के लिए नित्य नूतन साधनों की निर्मिति होती रहती है उन्हें भी साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं में स्थान देकर उनकी महत्ता को बढ़ाया है। साधारण सुई से लेकर वैक्सीन तक कुछ भी साहित्य से अछूता नही रहा और उन्हें उपयुक्त स्थान पर प्रतीक के रूप में प्रयोग किया गया।
प्रतीक एवं बिम्ब में क्या अंतर है ?
प्रतीक किसी सूक्ष्म भाव या अगोचर तत्त्व को साकार करने के लिए प्रयुक्त होता है, जबकि बिम्ब किसी पदार्थ की प्रतिकृति या प्रतिच्छवि के लिए प्रयुक्त होता है।
प्रतीक से तुरन्त मन में कोई भावना जाग्रत होती है किन्तु बिम्ब से मस्तिष्क में किसी सादृश्य का चित्र उभरता है।
व्यक्तित्व उपमान जब रूढ़ हो जाते हैं तो वे प्रतीक बन जाते हैं जबकि बिम्ब में नवीनता व ताजगी होती है।
प्रतीक कल्पना द्वारा किसी भावना को जाग्रत करते हैं, जबकि सटीक बिम्ब विधान से प्रमाता को तुरन्त ऐन्द्रिक साक्षात्कार होता है।
प्रतीक में किसी भावना को साकार होने की कल्पना की जाती है जबकि बिम्ब में कार्य का मूर्तिकरण होता है।
प्रतीक में भावना को उत्पन्न या जाग्रत करने की शक्ति होती है जबकि बिम्ब विधान में भावनाओं की उत्तेजित करने की शक्ति होती है।
प्रतीक पर युग, देश, संस्कृति, मान्यताओं की छाप रहती है।
प्रतीक के संदर्भ में कुछ रोचक जानकारी और है जिसे जान लेना भी अत्यंत आवश्यक है ....
प्रतीकपूजा का अर्थ
सं-स्त्री. - प्रतीकों की पूजा; लिंगपूजा; मूर्तिपूजा; आध्यात्मिक आस्था के कारण प्रकृति के किसी उपादान की पूजा।
प्रतीकवाद का अर्थ
सं-पु. - अभिव्यंजना की वह विशिष्ट प्रणाली या उससे संबंधित मूल तथा स्थूल सिद्धांत जिसके अनुसार प्रतीकों के आधार पर भावों, वस्तुओं आदि का बोध कराया जाता है; (सिंबलिज़म)।
प्रतीकवादी का अर्थ
वि. -
1 प्रतीकवाद से संबंधित; प्रतीकवाद का
2 प्रतीकवाद का अनुयायी, पोषक या समर्थक (व्यक्ति, कलाकार)।
प्रतीकात्मक का अर्थ
वि. -
1 जो प्रतीक या प्रतीकों से संबद्ध हो
2 (साहित्यिक रचना) जिसमें प्रतीकों की सहायता से भावों, वस्तुओं, विषयों आदि का बोध कराया गया हो
3 नाममात्र का।
प्रतीकात्मकता का अर्थ
सं-स्त्री. - प्रतीकात्मक होने की अवस्था या भाव।
प्रतीकार्थ का अर्थ
सं-पु. - 1 प्रतीक के आधार पर प्राप्त अर्थ
2 सांकेतिकता
3 प्रतीकात्मकता। वि. जिसका प्रयोग प्रतीक के रूप में हुआ हो।
प्रतीकोपासन का अर्थ
सं-स्त्री.- 1 देवता का कोई प्रतीक बनाकर उसकी पूजा करना
2 किसी के प्रतीक की की जाने वाली उपासना
3 मूर्तिपूजन।
संजय कौशिक 'विज्ञात'
सादर नमन गुरुदेव 🙏
ReplyDeleteबिम्ब और प्रतीक दोनों ही बहुत ही महत्वपूर्ण विषय है जिनके बारे में हर कलमकार को मालूम होना आवश्यक है। आपने बहुत ही विस्तार से इनके बारे में बताया ....हार्दिक आभार 🙏
इस पेस्ट को पढ़ने के बाद अनेक शंकाओं का निराकरण हो गया और इनके विषय में बहुत कुछ समझ में आया जिसकी जानकारी नही थी।
अनेक बिम्ब और प्रतीकों का प्रयोग रचनाओं में करते आ रहे थे किंतु उनके विषय में ठीक से पता नही था।
बहुत बहुत आभार इस ज्ञानवर्धक पोस्ट के लिए।
बहुत बहुत आभार गुरुदेव💐💐🙇🙇🙏🙏
ReplyDeleteबहुत सुंदर जानकारी दी है गुरुदेव आपने बिम्ब और प्रतीक के बारे में,🙏🙏
ReplyDeleteबहुत सुन्दर जानकारी गुरूदेव जी के द्वारा । बिम्ब और प्रतीक की समझ बढ़ाने में मददगार ।
ReplyDeleteउत्तम जानकारी अनुकरणीय शिक्षा प्रद है आदरणीय बहुत ही बढ़िया आपको सादर नमन
ReplyDeleteबिंब और प्रतीक पर बहुत ही महत्वपूर्ण और उपयोगी जानकारी प्रदान करने के लिए सादर आभार आदरणीय गुरुदेव यह काव्य रचना के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण विषय है जिनकी जानकारी कवि को होनी चाहिए और इनका प्रयोग भी सुचारू रूप से काव्य में होना चाहिए ताकि काव्य पाठकों को आनंददाई लगे।
ReplyDeleteनमन
उत्तम जानकारी गुरुदेव सुन्दर बिम्ब इसे पढ़कर और भी निखार लिखने की इच्छा बन रही है इस जानकारी के लिए कोटी कोटी नमन है
ReplyDeleteअसाधारण!
ReplyDeleteज्ञातव्य जानकारी!
एक अनुपम पोस्ट,जिन में काव्य की स्वच्छ तितीर्षा है उन्हें यह पोस्ट आंनद और आह्लाद से भर देगी।
आये दिन मंच पर ये प्रश्न उठता रहता है आखिर बिंब है क्या ?और वो भी नवीन बिंब कहाँ से आते हैं, तो मिमांसु रचनाकारों के लिए सात्विक आहार है ये पोस्ट।
प्रतीक और बिंब पर एक साथ
इतनी वृहद व्याख्यात्मक जानकारी मिलनी दुर्लभ है।
साथ ही जो भी प्रतीक और बिंब को सही से समझना चाहते हैं उनके लिए संग्रह करके रखने लायक जानकारी।
हाँ एक ही बार में ये ज्ञान आत्मसात होना असंभव नहीं पर मुश्किल जरूर है पोस्ट बार बार पढ़ना जरूरी है मेरे जैसों के लिए।
अद्भुत अद्वितीय!!
प्रतीक और बिम्बों पर बहुत सुंदर जानकारी दी आपने👌👌👌👌आपका हार्दिक आभार गुरुदेव🙏
ReplyDeleteबहुत सुंदर जानकारी संग्रह करने योग्य , सभी के लिए हितकारी
ReplyDeleteप्रतीकों बिम्ब पर सटीक जानकारी गुरुदेव को प्रणाम,
संग्रहणीय योग्य सार्थक जानकारी।
ReplyDeleteधन्यवाद।
ज्ञानवर्धक जानकारी के लिए धन्यवाद आदरणीय ।
ReplyDeleteबिंब और प्रतीक के बीच के भेद को जाने बिना ही सृजन करते आ रहे थे अभी तक।इस पोस्ट से बहुत सी भ्रांतियाँ दूर हुई हैं।बहुत ही ज्ञानवर्धक पोस्ट 👌👌👌👌👌👌👌👌
ReplyDelete