नवगीत
धारा ये विपरीत लहर की
संजय कौशिक 'विज्ञात'
मापनी ~ 16/14
आज हवा ने बदला पाला
वो पुरवा भी बदल गई
धारा ये विपरीत लहर की
केवल विष ही उगल गई।।
सावन भादों की झड़ियों को
गर्जन की कुछ संगत थी
रूप नहीं स्वाभाविक उनका
एक हठीली रंगत थी
टप-टप का कुछ क्रंदन करके
बदरी जैसे पिघल गई।।
एक उमस की शोभा निखरी
तपस्विनी तप बाधित सी
भंग हुई वो श्रेष्ठ तपस्या
वर्षों दिव्य समाधित सी
आज नियति ये और प्रभावित
देख हिमालय सँभल गई।।
एक कुहासे सा ये बचपन
बासंती के यौवन में
पुरवा नित ही सरपट दौड़े
इन ऋतुओं के जीवन में
शुष्क धरातल पर नित बहती
आर्द्र बना द्रव सजल गई।।
©संजय कौशिक 'विज्ञात'
बहुत ही खूबसूरत रचना 👌
ReplyDeleteबहुत कुछ कहती ...अनोखे बिम्बों से सजी चिंतन शील रचना। जितना गहन भाव उतना ही आकर्षक।
नमन आपकी लेखनी को गुरुदेव 🙏
नवीन बिम्बों से सुसज्जित नवगीत 👌🙏
ReplyDeleteगजब सुन्दर नवगीत बहुत मनमोहक बोलते बिंम्ब बहुत प्यारी रचना ढे़रो शुभकामनाएं सादर प्रणाम गुरुदेव🙏🙏🙏👌👌👌👌👌
ReplyDeleteपढ़ पढ़ कर समझा और जब समझ आई तो लगा ये कोई और दुनिया है जहाँ सुन्दर बिम्ब वास्तविकता का भान कराते हैं
ReplyDeleteनमन गुरुदेव 🙏🙏🙏
वाहह आदरणीय, सावन भादों की झड़ियों को गर्जन कुछ संगत थी..👏🏼👏🏼👏🏼👏🏼नूतन एवं आकर्षक बिंबों से सुसज्जित बेहतरीन नवगीत आदरणीय🙏🙏🙏👌🏼👌🏼👌🏼👏🏼👏🏼सादर नमन
ReplyDeleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteनव्य बिम्ब शानदार रचना गुरु देव 🙏🏻🙏🏻🙏🏻
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