नवगीत
परदेस गमन
संजय कौशिक 'विज्ञात'
मापनी 16/14
चक्रव्यूह से फँसे पड़े अब
लाल यहाँ अभिमन्यु बने
चकाचौंध परदेश गमन की
दलदल जैसी सोच घने।।
1
पंख नहीं उन्मुक्त गगन वो
आज नीड से बतियाता
इंद्रधनुष का ले आकर्षण
रंग अनेकों दिखलाता
पंछी के कलरव गान कहें
नीचे लगते झाड़ चने
2
चोंच उठाती दानें कैसे
आयु बहुत ही याणी सी
आँखों से बहता सा पानी
बात लगे पहचाणी सी
तरुवर के पत्तों ने ढाँपे
भला कहाँ पर देख तने।।
3
साँझ सिंदूरी लेकर आई
एक यथार्थ खड़ी डाली
चूजे ने कुछ पेट भरा फिर
पसरी तभी रात काली
उसे सुलाये माँ की लोरी
पड़ी चाँदनी पात छने।।
4
भोर खिली ले खुशियाँ आँचल
सूर्य किरण तम चीर खड़ी
निकल परिंदा रिक्त घोंसला
ममता विचलित हो सोच पड़ी
लाल अबोध घणे हैं बालक
निम्न ज्ञान की कीच सने।।
संजय कौशिक 'विज्ञात'
बहुत ही सुंदर हृदयस्पर्शी नवगीत 👌👌👌
ReplyDeleteमिट्टी से दूर भागते युवाओं को सुंदर संदेश दिया आपने 💐💐💐💐💐
बेहद हृदयस्पर्शी नवगीत आदरणीय
ReplyDeleteबेहद मर्मस्पर्शी नवगीत आदरणीय बहुत भावप्रणव ।
ReplyDeleteलाजवाब रचना 👌 आदरणीय
ReplyDeleteसुंदर नवगीत । पहली बार हरियाणवी बोली के शब्दों --याणी , पहचाणी , का मनभावन प्रयोग ।
ReplyDeleteसुशीला जोशी " विद्योत्तमा "
बेहतरीन शब्द संयोजन लय के साथ आ.सर जु
ReplyDeleteशानदार सृजन गजब व्यंजनाएं बिल्कुल हटकर न्यारी अभिनव।
ReplyDeleteशानदार गीत आदरणीय संजय जी | लयबद्ध और मनभावन ! सादर शुभकामनाएं|
ReplyDeleteसुंदर और अद्भुत बिम्ब से सजा गीत समसामयिक समस्या पर
ReplyDeleteसादर अभिवादन आ0