Sunday, August 9, 2020

नवगीत : परदेस गमन : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत 
परदेस गमन
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी 16/14 

चक्रव्यूह से फँसे पड़े अब
लाल यहाँ अभिमन्यु बने
चकाचौंध परदेश गमन की
दलदल जैसी सोच घने।।

1
पंख नहीं उन्मुक्त गगन वो
आज नीड से बतियाता 
इंद्रधनुष का ले आकर्षण
रंग अनेकों दिखलाता 
पंछी के कलरव गान कहें
नीचे लगते झाड़ चने

2
चोंच उठाती दानें कैसे 
आयु बहुत ही याणी सी
आँखों से बहता सा पानी
बात लगे पहचाणी सी
तरुवर के पत्तों ने ढाँपे
भला कहाँ पर देख तने।।

3
साँझ सिंदूरी लेकर आई
एक यथार्थ खड़ी डाली
चूजे ने कुछ पेट भरा फिर
पसरी तभी रात काली
उसे सुलाये माँ की लोरी
पड़ी चाँदनी पात छने।।

4
भोर खिली ले खुशियाँ आँचल
सूर्य किरण तम चीर खड़ी
निकल परिंदा रिक्त घोंसला
ममता विचलित हो सोच पड़ी
लाल अबोध घणे हैं बालक
निम्न ज्ञान की कीच सने।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

9 comments:

  1. बहुत ही सुंदर हृदयस्पर्शी नवगीत 👌👌👌
    मिट्टी से दूर भागते युवाओं को सुंदर संदेश दिया आपने 💐💐💐💐💐

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  2. बेहद हृदयस्पर्शी नवगीत आदरणीय

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  3. बेहद मर्मस्पर्शी नवगीत आदरणीय बहुत भावप्रणव ।

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  4. सुंदर नवगीत । पहली बार हरियाणवी बोली के शब्दों --याणी , पहचाणी , का मनभावन प्रयोग ।

    सुशीला जोशी " विद्योत्तमा "

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  5. बेहतरीन शब्द संयोजन लय के साथ आ.सर जु

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  6. शानदार सृजन गजब व्यंजनाएं बिल्कुल हटकर न्यारी अभिनव।

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  7. शानदार गीत आदरणीय संजय जी | लयबद्ध और मनभावन ! सादर शुभकामनाएं|

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  8. सुंदर और अद्भुत बिम्ब से सजा गीत समसामयिक समस्या पर
    सादर अभिवादन आ0

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