गजल
संजय कौशिक 'विज्ञात'
बह्र~ 2122 2122 212
दिल नहीं लगता कहीं पर आज कल।
वक़्त का बदला है तेवर आजकल।
वो वकालत काम किसके आ रही
मारती जो सच यहाँ पर आज कल।।
फूंकती है लू बदन को जेठ की
खो गया बादल कहीं पर आज कल।।
बाग में तितली नहीं अब एक भी
और बिखरे हैं पड़े पर आज कल।।
काम धंधा भी जहाँ पर बंद है
देख कोरोना सभी घर आज कल।।
और फिर फूलों से बनती है कहाँ
बोलते हैं शूल अक्सर आज कल
बिक रहे अखबार देखो हैं सभी
झूठ की बुनियाद जिस पर आज कल।।
वो महल से झांकता नीचे रहा
जो खड़ा ऊँचे पे जाकर आज कल।।
शख्स वो जो ऊंट पे बैठे कभी
भौंकते कुत्ते हैं उस पर आज कल
एक बूढ़ी माँ तड़पती चल बसे
मिल सके बेटा कहाँ पर आज कल।।
वो नजर भी देख कौशिक झुक गई
जो फरेबों से रही तर आज कल।।
संजय कौशिक 'विज्ञात'
बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल 👌👌👌
ReplyDeleteसभी शेर एक से बढ़कर एक ...लाजवाब 👏👏👏
बाह क्या बात है गुरु देव जी
ReplyDeleteबहुत सुन्दर सृजन
बाह क्या बात है गुरु देव जी
ReplyDeleteबहुत सुन्दर सृजन
सुन्दर और सराहनीय बेहतरीन प्रस्तुति
ReplyDeleteवाह वाह वाह वाह वाह वाह वाह वाह वाह वाह बहुत सुंदर गजल गा कर भी भेजिए कमाल हैं गुरुदेव शानदार
ReplyDeleteवाह शानदार अभिव्यक्ति आदरणीय
ReplyDeleteबहुत सुंदर ग़ज़ल।नमन लेखनी को।
ReplyDeleteबहुत ही बेहतरीन गज़ल....लाजवाब..👌👌👌👌👏👏👏👏
ReplyDeleteवाह बहुत सुन्दर ग़ज़ल । बेहतरीन
ReplyDeleteबेहद खूबसूरत
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDelete
ReplyDeleteबिक रहे अखबार देखो हैं सभी
झूठ की बुनियाद जिस पर आज कल।।👌👌👌👌👌
वाह आदरणीय एक एक शेर लाजवाब 👏👏👏
अप्रतिम प्रस्तुति।
ReplyDeleteवाह उम्दा/बेहतरीन सृजन।
ReplyDeleteबेहतरीन बहुत सुंदर माननीय गुरुदेव
ReplyDelete