नवगीत
तपस्विनी
संजय कौशिक 'विज्ञात'
मापनी~16/14
तपस्विनी बन धरणी तपती
सूर्य मंत्र कर उच्चारित।
सोम ओम भी रहे ताकते
तपे प्रेम पर आधारित।।
1
अस्तांचल से लेती भगवा
बादल प्रीत अगाध करे
नभमंडल का इंद्रधनुष भी
हिय में हर्ष अपार भरे
विद्युत कांति भी चमक दमकती
रहे मेघ से संचारित।।
2
मेघ मोर सा बना हृदय फिर
रवि से ही नित दिन करती
तारें लाखों निशा चमकती
ध्यान नहीं शशि का धरती
धरती को जो शीतल करता
करती नहीं इसे धारित।।
3
उषा काल की प्रथम किरण से
ज्ञान पुञ्ज गंगा निर्मित
रहे ताकती उन्हीं क्षणों से
अम्बर कुछ होता विचलित
अर्ध नेत्र हैं बंद धरा के
पलकें सागर सी वारित।।
संजय कौशिक 'विज्ञात'
बहुत ही शानदार नवगीत 👌👌👌
ReplyDeleteशब्दचयन,भाव और कथन सब लाजवाब 👌👌👌
बहुत दिनों बाद आपका नवगीत ब्लॉग पर आया...पर प्रतीक्षा का फल मीठा होता है। ढेर सारी बधाई लाजवाब सृजन की 💐💐💐
वाह!! अद्भुत, सुंदर निराली उपमाएं।
ReplyDeleteअप्रतिम।
बेहतरीन और लाजवाब सृजन आदरणीय गुरु देव जी
ReplyDeleteबहुत सुन्दर भाव आदरणीय जी
ReplyDeleteवाह वाह बहुत सुदंर लाजवाब पंक्तियाँ आदरणीय शानदार इतनी सुंदर रचना।
ReplyDeleteआदरणीय आपकी कलम के मुखरित होने की हमेशा प्रतीक्षा रहती है ।प्राणदायिनी लेखनी 🙏🙏🙏🙏अद्भुत अनुपम सृजन 🙏🙏🙏
ReplyDeleteआदरणीय आपकी कलम के मुखरित होने की हमेशा प्रतीक्षा रहती है ।प्राणदायिनी लेखनी 🙏🙏🙏🙏अद्भुत अनुपम सृजन 🙏🙏🙏
ReplyDeleteवाह!!!
ReplyDeleteबहुत ही उत्कृष्ट, लाजवाब नवगीत।
अद्भुत भाव आदरणीय लाजबाब नवगीत ।
ReplyDeleteसुंदर भाव सम्प्रेषण करती रचना ...
ReplyDeleteके लिए बधाई....
आज लंबे समय की प्रतीक्षा के पश्चात् आपका नवगीत पढ़ने को मिला।बेहद खूबसूरत बिंबों से सजा एक शानदार नवगीत👌👌👌👌👌👏👏👏👏👏👏
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