गीतिका
संजय कौशिक 'विज्ञात'
मापनी - 2122 2122 2122 2122
इन दिनों में मित्र का व्यवहार ऐसे हो रहा है।
सर्प की फुंकार सा उद्गार ऐसे हो रहा है।।
बिन तराजू तोल देते मित्र तज बंधन पुराना।
ब्याज खाते मूल बिन व्यापार ऐसे हो रहा है।।
टोपियों का खेल खेलें एक दूजे को चढ़ाकर।
मित्र ले माला पहन जयकार ऐसे हो रहा है।।
अब यहाँ पत्थर तिराकर बाँधते हैं सेतु कितने।
मित्र लुटिया दें डुबो उद्धार ऐसे हो रहा है।।
कौन वे बूंटी मँगाते प्राण रक्षा के लिए अब।
अब सखा विष दें पिला उपचार ऐसे हो रहा है।।
वो यहाँ पर कौन है जो पाँव धोकर जल पिये अब।
मित्र चुभता शूल सा परिवार ऐसे हो रहा है।।
आज यूँ विज्ञात ये पांडित्य फीका दे दिखाई।
मित्र बिन संसार का विस्तार ऐसे हो रहा है।।
©संजय कौशिक 'विज्ञात'
नमन गुरुदेव 🙏
ReplyDeleteआकर्षक गीतिका 👌
नमन गुरुदेव बहुत सुंदर गीतिका 👌👌👌
ReplyDeleteवाह! अद्भुत नमन🙇🙇💐💐🙏🙏🙏
ReplyDeleteबेहद खूबसूरत गीतिका गुरुदेव 👌🙏
ReplyDeleteबहुत सुंदर गुरुदेव,
ReplyDeleteबहुत सुंदर सृजन, शानदार, अनुपम, अनुकरणीय
ReplyDeleteनमन गुरु देव
बहुत खूबसूरत गीतिका👏👏👏👏👏👏
ReplyDeleteबहुत शानदार सृजन । गुरुदेव को सादर नमन
ReplyDeleteसभी रूग्ण आकर्षक है, सुंदर रचना 👌 गुरुदेव 🙏।
ReplyDeleteयुग्म लिखना चाहती थी , गलती से रूगण लिखा गया 🙏
ReplyDeleteअद्वितीय सृजन आ0 🙏🏻
ReplyDeleteबहुत सुंदर सृजन।
ReplyDeleteहर युग्म अपने आप में पूर्ण सहज और आकर्षक।
सुंदर सृजन 👌👌
ReplyDelete🙏🙏🙏🙏
बहुत सुन्दर गुरुदेव 🙏🙏
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