यक्ष प्रश्न प्रतिबिंब का
प्रतिबिंब प्रश्न करता ये मेरा
क्यों पैदा करने को आतुर थे।
मौन हुई अंतस की गहराई
क्षोभ हृदय के उत्कंठातुर थे ।।
वंश अंश की नींव गढ़ी थी
पितु दादे पड़दादे ने।
सात पीढ़ियाँ करी तिरस्कृत
यक्ष प्रश्न से सादे ने ।।
जन्म विलक्षण कहते थे सब
लाड लडाने को रोगातुर थे।।
तू है हर विद्या का ज्ञाता
मुझमें इतना बोध न था
किंतु भाग्य के हर कोने पर
यूँ निष्ठुर अवरोध न था
पुत्र श्रवण की अभिलाषा में हम
नेत्रहीन निर्धन भावातुर थे।।
फिर भी है त्रुटि स्वीकार हमे
पर तू गलती मत करना
वंश अंश की परम्परा के
झूठे बोझ नहीं मरना
अपने सुत से आज्ञा ले लेना
हम तो ढीठ मूढ़ कामातुर थे।।
डॉ. संजय कौशिक ’विज्ञात‘