Thursday, April 30, 2020

घनाक्षरी : विज्ञात घनाक्षरी : संजय कौशिक 'विज्ञात'


घनाक्षरी 
संजय कौशिक 'विज्ञात'

1
विज्ञात घनाक्षरी
शिल्प : विज्ञात घनाक्षरी के प्रत्येक चरण में 8,8,8,8 पर यति होती है। इसके प्रत्येक चरणान्त में 3 गुरु आते हैं। इसमें विज्ञात छंद की मापनी 211 212 22 प्रत्येक यति के साथ निभाई जाती है जिसमें  (पद सनुप्रास) प्रत्येक यति पर अन्त्यानुप्रास की भांति अनुप्रास इसे पद सनुप्रास कहते हैं। इसमें कुल 32 वर्ण होते हैं। 

उदाहरण :- 

विज्ञात घनाक्षरी 

देख यहाँ वहाँ सारी, और कहाँ कहाँ न्यारी,
बात लगे सभी प्यारी, कोयल ये बुलाती है।
राग बजे सुरीली वो, कण्ठ सजे छबीली वो,
ताल लिये सजीली वो, ज्ञान यही ढुलाती है।
लेख कहे विधाता सा, प्रेम बढ़े रिझाता सा,
मोहन ये सुनाता सा, सीख वही सुनाती है।
सिद्ध यही प्रभावी है, और कहे छलावी है, 
शांत हुई भुलावी है, घाव सभी दिखाती है।

उदाहरण 2 

विज्ञात घनाक्षरी

भूल गया सभी बातें, खेल रही वही घातें, 
जाग चुका कई रातें, नींद मुझे नहीं आई।
रोग कहे वही प्यारा, छंद नहीं बना न्यारा, 
टूट गया हिये हारा, पीर मिले वही गाई।।
ज्ञान गया कहीं खोया, खिन्न हुआ तभी रोया, 
कष्ट यही सदा ढोया, एक खुशी नहीं पाई।
कूप बना खड़ा देखा, और वहाँ पड़ी रेखा,
नेत्र पढ़ें कहाँ लेखा, देख नहीं फटी काई।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

2
मनहरण घनाक्षरी
शिल्प: मनहरण घनाक्षरी के प्रत्येक चरण में 8,8,8,7 वर्णों पर या 16,15 पर यति होती है इसके अंत में एक गुरु अनिवार्य होता है (अर्थात इससे पूर्व एक लघु और उससे पूर्व एक गुरु के माध्यम से ही 1 गुरु स्पष्ट किया जा सकता है इसमें कुल वर्णों की संख्या 31 होती है। 

उदाहरण 

मनहरण घनाक्षरी 

अष्ट वर्ण तीन बार, सप्त वर्ण लिखो फिर, 
इकतीस अक्षर ये, तोल लो घनाक्षरी।
लीखिये द्विवर्ण चार, यति आये तीन बार, 
द्विवर्ण, त्रिवर्ण दो ले, घोल लो घनाक्षरी॥
*मनहरण* निराला, जम के ये पढ़ा जाये, 
सवैया का परिवार, खोल लो घनाक्षरी।
अंत एक गुरु जँचे, देख पाँच मात्रा पूर्व, 
चार पद चार तुक, बोल लो घनाक्षरी॥ 

3
रूप घनाक्षरी
शिल्प: रूप घनाक्षरी के प्रत्येक चरण में 8,8,8,8 वर्णों पर यति होती है इसके अंत में गाल (21) वर्ण अनिवार्य होता है इसमें कुल 32 वर्ण होते हैं।

उदाहरण 

रूप घनाक्षरी

कोयल की कूक प्यारी, लगती है मनोहारी,
पंचम में स्वर गूँजे, चहुँ दिश सब राग।
फाल्गुनी के रंग उड़े, और टूटे मन जुड़े,
कलरव ऐसा छाया, महके हैं देख बाग।
यौवन उमंग भरा, और प्रेम ढंग भरा,
समझ न आया कुछ, रंग का ये देखो दाग।
टूट जाये नींद तभी, जागे देखे लोग सभी,
कृष्ण की ये सखियाँ हैं, इनका ही ये है फाग।

4
जलहरण घनाक्षरी 
शिल्प: जलहरण घनाक्षरी के प्रत्येक चरण में 8,8,8,8 वर्णों पर यति होती है, इसमें 16,16 वर्णों पर भी यति आती है, इसके चरणान्त में दो लघु अनिवार्य होते हैं, इसमें कुल 32 वर्ण होते हैं।

उदाहरण

जलहरण घनाक्षरी 

कोरोना के लिया चित, राज काज देखो नित,
भारत ये करे अब, भारती की जय-जय।
ताला बंदी देख फिर, सबके ही मौन सिर, 
देश सारा एक कह, आरती की जय-जय।।
उठती उमंग मन, और ले हिलोर तन, 
लड़ रहे युद्ध सब, मारती की जय-जय।
तन की उधारी सुन, बज रही श्वास धुन,
प्राण महा प्राण यह, धारती की जय-जय।।

5
जनहरण घनाक्षरी
शिल्प: जनहरण घनाक्षरी के प्रत्येक चरण में 8,8,8,7 पर यति होती है। 30 वर्ण लघु  और 1 वर्ण गुरु मात्रा भार सहित कुल 31 वर्ण होते हैं। चरणान्त में एक वर्ण गुरु (2) अंत में होता है

उदाहरण 

जनहरण घनाक्षरी 

नयन टपक कह, मन धक धक रह, 
विषय अचल सब, पल-पल चलते।
खटक चटक गढ़, प्रणय चलन पढ़, 
वरण कथन कह, यह कब टलते।।
पर अब यह वह, रह-रह सब सह,
अन बन घर-घर, सब कह खलते।
गरज बरस तर, छल मन भर कर, 
सच कह वह रच, घट-घट छलते।।

6
डमरू घनाक्षरी 
शिल्प: डमरू घनाक्षरी के प्रत्येक चरण में 8,8,8,8 पर यति होती है, प्रत्येक वर्ण बिना किसी लघु, गुरु मात्रा के लघु (1) होते है। इसमें कुल 32 वर्ण होते हैं।

उदाहरण

डमरू घनाक्षरी 

पनघट चल कर, अब चल घट भर,
जन कह सब यह, मत बन नटखट।
नटखट यह पथ, चल चढ़ अब रथ, 
जल भर डट कर, मत कर खटपट।।
खटपट कर हल, मत रख वह बल, 
बढ़ कर मन फट, बढ़ रह चटपट।
चटपट सह बच, सत मय लय रच, 
अब बढ़ कर चल, यह कह पनघट।।

7
विजया घनाक्षरी 
शिल्प: विजया घनाक्षरी के प्रत्येक चरण में 8,8,8,8 वर्णों पर यति होती है। इसके  चरणान्त में लघु गुरु (12) या नगण (111) वर्ण होते हैं (पद अनुप्रास ) होते हैं। इसमें कुल 32 वर्ण होते हैं 

उदाहरण

विजया घनाक्षरी 

नेत्र विचलित हुए, बहे तो द्रवित हुए
सोये जागे नित हुए, स्वप्न सब सँवारते।
कुंठित सा रोग दिखे, दृश्य यही सर्व चखे, 
कितनी ही बात रखे, ये आंखों में निहारते।।
भूखी शुष्क पिपासित, आँखें बोलती विदित, 
और यही सुवासित, इशारों में उबारते।
कौशिक ये रोग वहीं, दिखता ही नहीं कहीं, 
छुप-छुप देखो यहीं, भाव भर पुकारते।।

8
कृपाण घनाक्षरी
शिल्प : कृपाण घनाक्षरी के प्रत्येक चरण में 8,8,8,8 पर यति होती है। इसके प्रत्येक चरणान्त में गाल अर्थात गुरु लघु आते हैं।  (पद सनुप्रास) प्रत्येक यति पर अन्त्यानुप्रास की भांति अनुप्रास इसे पद सनुप्रास कहते हैं। इसमें कुल 32 वर्ण होते हैं। 

उदाहरण 

कृपाण घनाक्षरी

शूरवीर स्वाभिमान, शंख नाद का ले ज्ञान, 
उनका ही अभिमान, यह जय हिंदुस्तान।
शौर्य शक्ति का विधान, सारे विश्व को है भान, 
नहीं कोई अनजान, तिरंगे का जय गान।।
काल करे अभिमान, उसका भी खींचे ध्यान 
शौर्य के हैं प्रतिमान, महाकाल से जवान।
माटी के है ये किसान, वायु से हैं गुणवान, 
साफ जल जैसी शान, सीमा के ये भगवान।।

9
हरिहरण घनाक्षरी 
शिल्प: हरिहरण घनाक्षरी के प्रत्येक चरण में 8,8,8,8 वर्णों पर यति होती है। इसके प्रत्येक चरणान्त में दो लघु पद सनुप्रास होते हैं इसमें वर्णों की संख्या 32 होती है 

उदाहरण

हरिहरण घनाक्षरी

कविता का सार सुन, भाव व्यवहार सुन,
हिय की पुकार सुन, करे जो प्रहार सुन।
करूणा का वार सुन, और कहूँ प्यार सुन, 
कष्ट का ये हार सुन, शौर्य पुष्प धार सुन।।
नवधा बहार सुन, छंद अलंकार सुन, 
ज्ञान का भण्डार सुन, तुक का आधार सुन।
श्रोता ले उचार सुन, मंच की हुँकार सुन, 
आचार विचार सुन, कवि का आभार सुन।।

10
सूर घनाक्षरी 
शिल्प: सूर घनाक्षरी में 8,8,8,8 वर्णों पर यति होती है, इसके चरणान्त में लघु (1) या गुरु (2)  कोई भी वर्ण आ सकता है। इसमें वर्ण संख्या 30 होती है 

उदाहरण 

सूर घनाक्षरी

मजदूरों का है काल, भूख प्यास का है जाल, 
देख सारे हैं बेहाल, फँस रो रहे हैं।
एक मई का दिवस, आज भी रहे तरस, 
अब और कर बस, आँसूं यूँ बहे हैं।।
कष्ट में हैं प्राण आज, बिन अन्न जल काज,
कोई सुन ले आवाज, इतना कहे हैं।
रोता दिखे परिवार, मौन हुई सरकार, 
इनका है क्या आधार, कष्ट जो सहे हैं।।

11
देवहरण घनाक्षरी 
शिल्प: देवहरण घनाक्षरी में 8,8,8,9 वर्णों पर यति होती है। इसके प्रत्येक चरणान्त में 3 लघु (111) नगण वर्ण अनिवार्य होता है। इसमें कुल 33 वर्ण होते हैं

उदाहरण 

देवहरण घनाक्षरी

यहाँ वहाँ जग सारा, ढूँढ- ढूँढ मन हारा, 
श्याम धणी एक प्यारा, मत द्वारे-द्वारे भटक।
चाहिये न कुछ और, भाव ये कहें विभोर, 
तीन लोक मचा शोर, लीले की है प्यारी लटक।।
जीवन ये नाम करूँ, सखा फिर क्यों मैं डरूँ, 
खुशी-खुशी झोली भरू, लगी है मुझे ये खटक।
कौशिक सुनेंगे टेर, करेंगे जरा न देर, 
कटेंगे ये सब फेर, सारी ये मिटेंगी अटक।।

12
कलाधर छंद / कालधर घनाक्षरी 
संजय कौशिक 'विज्ञात'

शिल्प: आज वार्णिक दण्डक छंद घनाक्षरी में विशुद्ध घनाक्षरी देखते हैं। गुरु लघु की पंद्रह आवृति और अंत में एक गुरु।अर्थात 2 1×15 तत्पश्चात एक गुरु।इस प्रकार 31 वर्ण प्रति चरण। उम्मीद है यह साधारण शिल्प समझ में आगया होगा। मापनी और गण व्यवस्था से भी पुनः समझते हैं ....
मापनी 
21212121, 21212121, 21212121, 2121212
गण : 
रगण जगण रगण जगण रगण जगण रगण जगण रगण जगण+गुरु वर्ण 


उदाहरण :

कलाधर घनाक्षरी

हिन्द देश है महान, विश्व में बड़ा प्रचार, 
            योग, वेद, सांख्य, ज्ञान, ध्यान आन जान लो।
मंत्र- तंत्र के प्रभाव, यंत्र के बहाव देख, 
                       घूमता दिमाग देख, वेग जोर मान लो॥
पंच तत्त्व के विवेक, चीर फाड़ काट नित्य 
                     बूटियाँ कमाल दूध, नीर आज छान लो।
हस्त-रेख, सूर्य-केतु, मेष-मीन, भूमि चाल,
                    शून्य खोज से असंख्य, ढूँढते विधान लो॥ 

                             संजय कौशिक 'विज्ञात'

Saturday, April 25, 2020

गीत : अणिमा : संजय कौशिक 'विज्ञात'


गीत 
अणिमा
संजय कौशिक 'विज्ञात' 

प्रचण्ड रूप देख अणिमा का
अणु कोरोना हार चलेगा।।
सुरसा सा मुख रोग खोलता
मानव घर में बैठ टलेगा।।

1
अणिमा साधक बहुत पुराने
अणु से छोटे बन जाएंगे
साधक जो बजरंग बली के
यही कला सब अपनाएंगे
भीड़ दूर की बात हवा है
निकट उन्हें नर नहीं खलेगा

ये देख च्यवन ऋषि के वंशज
निर्माण प्राश वो कर देंगे
कोप वृद्धता भी डर भागे
हाल पूछ इससे भी लेंगे
सौ रूप बहुरूपिया बदले 
एक नहीं जन आज छलेगा।।

संजय कौशिक विज्ञात

गीत : कोरोना का बखेड़ा : संजय कौशिक 'विज्ञात'


गीत
कोरोना का बखेड़ा 
संजय कौशिक 'विज्ञात'

करोना का बखेड़ा।
प्रकृति का थपेड़ा।। स्लोगन 

स्थाई 👇
कोरोना का देख बखेड़ा।
कुदरत हँसती मार थपेड़ा।।

1
मानव निर्मित कहर कहूँ या
एक प्रयोग पड़ा है उल्टा
भूखा मानुष बना भेड़िया
जिसने जीवन सारा पल्टा
मांस जीव का खाता नित ये
छोड़ रहा है लड्डू पेड़ा।।

2
हाथी ताण्डव करता दिखता
सूंड फँसी हो चींटी मानो
उस चींटी से भी लघु अणु से
विश्व चकित सा दिखता जानो
और दवा सब खोज रहे हैं
जीवन संचित ज्ञान उधेड़ा।।

3
बंद घरों में सभी आदमी
सहमे से हैं डरे हुए से
सशक्त अणु ये अजगर जैसा
कंपन से सब भरे हुए से
गाँवों में अवसर पाते ही 
धोक चले सब अपना खेड़ा।।

4
लौट चुके उस पगडण्डी पे
गाँवों का आधार रही जो
पुत्र-पिता पति भाई पाये
हँसी खुशी परिवार रही जो
रत्न प्राप्त से राग मिलन का 
कौशिक मन वीणा ने छेड़ा।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Thursday, April 23, 2020

नवगीत : व्यथित व्यंजना : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत
व्यथित व्यंजना
संजय कौशिक 'विज्ञात'

इक व्यथित सी व्यंजना फिर 
देख हँसती आज दर्पण।।
1
और वीणा आज फिर से 
इस तरह खण्डित हुई सी
तार सारे दिख रहे हैं
मौन स्वर मण्डित हुई सी 
वंदना के श्लोक गूँजे
भाव पूजा श्रेष्ठ अर्पण।।
फिर अधर जब मौन बोले
शब्द वो गुंजित हुआ सा
दूर अन्तस् से छँटा वो
छा रहा था जो कुहासा
भावना बिन ताल ठोंकी
राग में घुलता समर्पण।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Monday, April 20, 2020

गीत : ॐ निनाद : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत 
ॐ निनाद 
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी 16/16

ॐ निनाद में शून्य सनातन 
है ब्रह्माण्ड समस्त समाहित।।
सत्य विवादित तूल दृष्टि से 
उच्च बोध दे शिव ही माहित।।

1
प्रात साँझ विज्ञात शिवम् सम 
आदि शक्ति कर वर्णन कहते।
कमल नालमय ब्रह्मा निर्मित
अग्रिम हर मन्वन्तर रहते।।
चतुर्युगी संरचना बनती
तत्व प्रतिष्ठित एक हिताहित।

2
तीन लोक कल्याणी माया
पंचाक्षरमय शोभित शोधित
नित्य निरन्तर काल जपित ये
धरणी पर होती अवरोधित
साक्ष्य गुरुत्वाकर्षित अक्षर
उर्मि सिंधु से नित ही वाहित

3
किंचित लेश मात्र भी विचलित
दृश्य नहीं जो करते धारण
जन्म मृत्यु भय मुक्ति युक्ति ये
पार करे सहयोगी तारण 
और उभारण हार नाद ये
रोम-रोम में शिवम् प्रवाहित

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Sunday, April 19, 2020

गीत : भारत की पहचान : संजय कौशिक 'विज्ञात'


गीत
भारत की पहचान
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी 16/14 

नैतिकता आदर्श हमारे
भारत की पहचान बने।
पार्थ धनुर्धर चन्द्रगुप्त से
शिक्षित श्रेष्ठ महान बने।

1
आर्य भट्ट कर खोज शून्य की
विश्व पटल को चौंकाया।
मानवता का सभ्य पाठ भी
भारत ने ही समझाया
श्रद्धा भाव से शिल्प गढ़ा जब
पत्थर भी भगवान बने।

2
वेद ज्ञान से शब्द फूटते
वीणा की झंकार हमीं।
चांद कल्पना पाँव धरे वो
दिव्य ज्ञान का सार हमीं।
और जगत के रक्षक बनकर
हम ही शक्ति विधान बने

3
सदियों की वो पराधीनता
उसको हमने फूंक दिया।
दहकी ज्वाला हवन कुण्ड सी
हवि मानव दे यज्ञ किया।
जलियांवाला जैसे लाखों
इस भूमि पर श्मशान बने

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Saturday, April 18, 2020

नवगीत : मचलती उर्मियाँ : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत 
मचलती उर्मियाँ
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी 14/14

उर्मियाँ घूँघट हटाकर
फिर मचलती आ रही हैं।
और चिंतन में मनन से
आँख ज्यादा ही बही हैं।।

तिलमिलाहट थी अनेकों
वायु में आक्रोश छाया।
वो किनारा छोड़ भागी
प्रीत का अवशेष पाया।
बोलती किससे बता वो
बात बिन बोले कही हैं।।

2
हो समाहित जल समाधी
छोड़ती अस्तित्व अपना।
सीप मोती मणिकों के 
थाल छोड़े और सपना।
वो वहीं पर डूबती सी
देख अब जीवित नही हैं।।

लाश अपनी सी उठाकर
मध्य सागर वो चली है।
पीर सागर जनता है
जो गई अब फिर छली है।
मेघ आकर जब मिला तो
फिर लगा जीवित सही हैं।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Friday, April 17, 2020

नवगीत : हँसती व्याधियाँ : संजय कौशिक 'विज्ञात'



नवगीत
हँसती व्याधियाँ
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी 14/14

व्याधियाँ हँसने लगी हैं
सो रहे दिन रात जागे।
वो गगन से ताकता है
चंद्रमा भी और आगे

1
नभ सितारे जल रहे हैं
चन्द्र अंगारा बना क्यों।
टूटता सा गिर रहा है
ये शिखर इतना घना क्यों
मार्ग सीधा मोड़ लेकर
संकरी वो आज लागे

2
रो रही सी चांदनी है
कौन क्रंदन सुन सकेगा।
ये बयारें तिलमिलाई
कौन इनको टोक लेगा।
सागरों की उर्मियों को
बाँधते हैं देख धागे

3
स्वेद से किरणें पृथक हो
आज आभा खो चुकी हैं
धड़कनें बाधित हुई सी
भागती सी कुछ रुकी हैं
ये हृदय की बांसुरी के
कोकिला स्वर आज त्यागे

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Thursday, April 16, 2020

नवगीत : सृष्टि का विस्तार : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत 
सृष्टि का विस्तार 
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी 14/14 

सृष्टि का विस्तार होगा
रिक्तपन अब फिर जरूरी।
काल नदिया चीखती सी
बात कहती सब अधूरी।।
1
और भावी फिर करेगी
मौन से संवाद कितने
नाद देखी चुप खड़ी सी
गूँजते है शब्द इतने
शंख ध्वनि अब चीर देगी
दूर तक की शांति पूरी।
उर्मि भी अब कुछ ठहर कर
सिंधु को आभास देती
नीर ये सोखा गया सा
सोच जब हलचल न लेती
ये प्रवाहित सी हवा भी
छोड़ती सी आज धूरी
3
तत्व सारे शोधने हैं
आज जीवन सोच ले जो
और खालीपन सजाकर
कष्ट तन से नोच ले जो
आत्म मंथन आज नियमित
बुद्धि सोचे ये विदूरी
4
शुद्ध हो वातावरण ये
हवि हवन में दें अगर सब
फिर धुँआ पावन उड़ेगा
गाँव बस्ती से नगर सब
आरती की घण्टियाँ भी 
श्वास गुंजित बन कपूरी

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Monday, April 13, 2020

नवगीत : कोप : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत 
कोप 
संजय कौशिक 'विज्ञात' 

मापनी~~ 16/14 


एक कोप कोरोना बनकर
खेल रहा है आँख मिचौली।
घूँघट बदली का है पतला
यही सूर्य से धरती बोली।।

1
नूतन काल सृष्टि परिवर्तन
उपवन भी सब महके महके
वातावरण हुआ आतंकित
भ्रमर भ्रमित हैं बहके बहके
एक आँख की कानी गोरी
बन्द करी कब आँखें खोली।।

अवगुंठन में बंद कली सब
तड़प रही सी बंधन पाकर 
फूलों पर भी देख आवरण
बाग खड़ा विस्मित सा आकर
गाकर सारे राग रागनी
वीणा के स्वर ढूंढे टोली

3
बैसाखी पर कनक हरे से
नेत्र द्रवित लें आज निहारें
आढ़त दामी की सब बोली
मिले नहीं बिन भाव पुकारे
सारे झगड़े का सा कारण
भार किये बिन बोरी तोली

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Saturday, April 11, 2020

नवगीत ; पाषाणी मन : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत 
पाषाणी मन
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी 16/14 

सारंगी सी गूंज स्वरों में
मौन कहे पाषाणी मन।
अन्तस् में लावा सा धधका 
और बहाये पाणी मन।

1
शान्त स्वरों ने पीर सुनाई
मचल रागिनी कुछ बोली।
लहराई टूटी सी सरगम
गूंज गई रिसती खोली।
भेज रही घाटी आवाजें
कह चीत्कार प्रमाणी मन।।

2
रुला रहे हैं राग हृदय को
अधरों पर छाया स्पंदन।
धार अश्रु की बहती सूखी 
और लहर करती क्रंदन।
कंठ पिपासित द्रवित रुद्ध सा
बोल कहे निर्वाणी मन।।

3
एक हँसी का टपका आँसू
देता हिय को घात बड़ी।
समय चक्र के गीत चीखते
कलियाँ व्याकुल देख खड़ी।
मुखड़ा पूरक पर आते ही
सहता कष्ट कृपाणी मन।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Thursday, April 9, 2020

नवगीत : आक्रोशित हिय : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत 
आक्रोशित हिय 
संजय कौशिक 'विज्ञात' 

मापनी 16/14

देकर पाषाणों सी ठोकर 
प्रेम कहाँ पर ले आया। 
ढलती साँझे साँसे फूली
आक्रोशित हिय घबराया।।

1
स्पर्श एक से चरखा चलता
बात हवा सी बतियाता।
ताकू जैसे मुख से उगले
स्नेह प्रभावी दिखलाता।
धुरी प्रेम सी टूट गई जब
सृष्टि चक्र सा थम जाता।
तड़प उठा जब बहक हवा ने
अंग छुवन सा सहलाया।।

2
खण्डित दर्पण करता क्रंदन
रूप शतक लेकर अंदर।
लहरें करती ताण्डव नर्तन
शांत हृदय की ये कंदर।
और पीर का बुझता दीपक
हाँफ रहा जैसे बन्दर।
कष्ट अडिग चट्टानों जैसे 
इन्हें व्यर्थ ही समझाया।।

3
कच्चा घर दीवारें कच्ची
पूछ उठी हैं बात वही।
बोल रहे हैं कच्चे रिश्ते
टूट गये क्या खाक सही।
आहत कब करती दीवारें
पक्की सी यूँ बात कही।
सुनकर उनकी बात अचानक
हृदय द्रवित सा चिल्लाया।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Wednesday, April 8, 2020

नवगीत : बरसा जब विश्वास : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत 
बरसा जब विश्वास 
संजय कौशिक 'विज्ञात' 

मापनी 13/11

उमड़ घुमड़ छाता रहा, 
हृदय प्रीत मधुमास।
पर्व हर्ष का फिर मना,
बरसा जब विश्वास।

1
बौर आम्र पर अब लदे
कोयल पंचम गान
बैठ पपीहे सुन रहे 
प्रेम मगन कुछ तान
यौवन चहुँ दिश छा गया
लगी सभी को आस।

2
दर्पण गोरी देखती 
नख शख रही निहार 
दृष्टि चित्त खुश कर रही 
भृकुटि मंत्र उच्चार 
सोलह से शृंगार कर 
पिया मिलन के खास 

3
इत्र छिड़क महकी दिखे 
जैसे बगिया आज
भँवरे सब पगला गये
थे पागल के काज
होश सभी बिसरा रहे 
हुआ खड़ा ही नास 

4
दोष पूछ मधुमास से
शायद कहदे भेद
गौरव पावन पूण्य सा
उच्चारित कह वेद 
दग्ध विरह करती दिखे
प्रेम दीप दे चास

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Sunday, April 5, 2020

नवगीत : दर्पण : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत 
दर्पण 
संजय कौशिक 'विज्ञात' 

मापनी ~~16/14 


दर्पण रिश्ते चटक टूटते 
एक जरा सी आहट से।
तड़प रहे हैं सब सर्दी से 
बुत बन खड़े सजावट से।

डूब रहे हैं नदी किनारे 
शुष्क रेत में जलकर के।
भीतर तक जो तैर चुके हैं 
बाहर निकले चलकर के।
देख रहा कश्ती का चप्पू 
बिना किसी घबराहट से।।

लहरों से भी खेल चुकी हैं 
स्मृति अनुपम हिरदे घाती।
आती जाती साँसे लायी
कोना फटी हुई पाती।
शेष नहीं था बचा हुआ कुछ 
वाचा बिना दिखावट से।।

लावा सा बहकर फूटे जब 
अन्तस् मन की ज्वाला का।
मनका- मनका बिखर गया फिर
हृदय पुष्प की माला का। 
और पीठ के पीछे चुगली 
जब सुने सुगबुगाहट से।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

नवगीत : गीत चीखता : संजय कौशिक 'विज्ञात'

नवगीत 
गीत चीखता
संजय कौशिक 'विज्ञात' 


मापनी 16/14

गीत चीखता अर्ध लिखा सा 
रूठे अक्षर तोड़ गया।
और व्यंजना अन्तस् चुभती 
भाव हिलोरी मोड़ गया।।

1
शब्द सृजक बन पुष्प महकते 
भाव शूल का काज कहें।
अर्थ समझ में आ भी जाता 
वर्ण अभाषी गाज कहें।
अंचल की सुंदरता सिमटी
बिन ममता के आज कहें।
दीन हीन सा चरण गीत का 
यति गति को फिर फोड़ गया।।

निखरा सा पद बिम्ब समेटे 
और नकल थी दर्पण की।
साथ रहा वो कुछ क्षण मिलकर 
चढ़ता भेंट समर्पण की।
तिल लेकर फिर भरी अंजुली 
बात करे कुछ तर्पण की।
ठहर अंतरा देख विचारे
भाव मरम के छोड़ गया।।

3
द्रवित पृष्ठ मसि सुष्क चमकती 
चली लेखनी अटक अटक।
बोल लिखे पुष्पों से चुभते 
शूल गये थे भाल खटक।
धुन जब सारंगी से निकली 
खड़ी हुई वो वहीं लटक।
तबले से जब ताल बजी तो
लगा अचानक ओड़ गया।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

Wednesday, April 1, 2020

नवगीत : मधुमासी अभिनंदन : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत 
मधुमासी अभिनंदन 
संजय कौशिक 'विज्ञात' 

मापनी ~~ 16/14 

पतझड़ से अन्तस् कानन में,
मधुमासी सा अभिनंदन।
दृष्टि पटल से पलक उठी जब, 
गिरती सी करती वंदन।

1
सूखी खुशियाँ खिली दिखी जब, 
महकी कलियाँ मुस्काई।
देख हँसी तो अन्तस् मन में, 
सरसों सी थी तरुणाई।
मस्त तरंग प्रकम्पन कहते,
हृदय स्पर्श कर मदमाई।
लटक रही थी ब्याल जहाँ पर, 
महक रहे वो सब चन्दन ...

2
यौवन धार गुरुत्वाकर्षण, 
आकर्षक सा अवलंबन।
कंटीली सी पीर समय की,
मिटती सब बिना विलंबन।
पवमान लिए उपहार खड़ा, 
और जड़ा अधरों चुम्बन। 
लाखों झोंके करते देखे,
बहुत कलह सा फिर क्रंदन।

3
कलकल गूंजे बहते झरने, 
रक्त धमनियाँ दौड़ रही। 
सांय सांय की आवाजें थी, 
समझ नासिका छोड़ रही।
नेत्र विचारक बन कर बैठे,
आस उन्हें कुछ जोड़ रही।
प्राणायाम हृदय तक उतरा,
बाहर काबू से स्पंदन ... 

संजय कौशिक 'विज्ञात'

नवगीत : मोहिनी :संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत 
मोहिनी 
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी ~~ 13/13

भावन अप्सरा कोई, 
मादक मोहिनी आई।
तीर कमान वो छोड़ें,
भौंह निशान सी पाई।

नेत्र बड़े मनोहारी, 
और सधे प्रहारों से।
रूप परी दिखाये तो, 
आह भरें विचारों से।
अक्षर वर्ण सम्भाले,
आकर गीतिका गाई ....

2
वो मिलती निशा ऐसी,
आकर चांदनी बोले।
शीतल सी व्यहारी थी, 
घातक सा पयो घोले।
मंडल कांति तारों की, 
गूंज विराट सी छाई।

3
पीपल कोकिला कूकी, 
अन्तस्  प्रेम सा फूटा।
और तरंग छोटी थी, 
देख प्रभाव जो लूटा।
ओझल सी हुई देखी,
नाम पुकार मुस्काई।

संजय कौशिक 'विज्ञात'