Sunday, April 5, 2020

नवगीत : दर्पण : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत 
दर्पण 
संजय कौशिक 'विज्ञात' 

मापनी ~~16/14 


दर्पण रिश्ते चटक टूटते 
एक जरा सी आहट से।
तड़प रहे हैं सब सर्दी से 
बुत बन खड़े सजावट से।

डूब रहे हैं नदी किनारे 
शुष्क रेत में जलकर के।
भीतर तक जो तैर चुके हैं 
बाहर निकले चलकर के।
देख रहा कश्ती का चप्पू 
बिना किसी घबराहट से।।

लहरों से भी खेल चुकी हैं 
स्मृति अनुपम हिरदे घाती।
आती जाती साँसे लायी
कोना फटी हुई पाती।
शेष नहीं था बचा हुआ कुछ 
वाचा बिना दिखावट से।।

लावा सा बहकर फूटे जब 
अन्तस् मन की ज्वाला का।
मनका- मनका बिखर गया फिर
हृदय पुष्प की माला का। 
और पीठ के पीछे चुगली 
जब सुने सुगबुगाहट से।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

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