नवगीत
गीत चीखता
संजय कौशिक 'विज्ञात'
मापनी 16/14
गीत चीखता अर्ध लिखा सा
रूठे अक्षर तोड़ गया।
और व्यंजना अन्तस् चुभती
भाव हिलोरी मोड़ गया।।
1
शब्द सृजक बन पुष्प महकते
भाव शूल का काज कहें।
अर्थ समझ में आ भी जाता
वर्ण अभाषी गाज कहें।
अंचल की सुंदरता सिमटी
बिन ममता के आज कहें।
दीन हीन सा चरण गीत का
यति गति को फिर फोड़ गया।।
2
निखरा सा पद बिम्ब समेटे
और नकल थी दर्पण की।
साथ रहा वो कुछ क्षण मिलकर
चढ़ता भेंट समर्पण की।
तिल लेकर फिर भरी अंजुली
बात करे कुछ तर्पण की।
ठहर अंतरा देख विचारे
भाव मरम के छोड़ गया।।
3
द्रवित पृष्ठ मसि सुष्क चमकती
चली लेखनी अटक अटक।
बोल लिखे पुष्पों से चुभते
शूल गये थे भाल खटक।
धुन जब सारंगी से निकली
खड़ी हुई वो वहीं लटक।
तबले से जब ताल बजी तो
लगा अचानक ओड़ गया।।
संजय कौशिक 'विज्ञात'
वाह अद्भुत ।
ReplyDeleteसृजन विस्मय जनक व्यंनाएं
अनुपम अभिनव सृजन ।
गजब के भाव आदरणीय बहुत बहुत बधाई
ReplyDeleteअंचल की सुंदरता सिमटी
ReplyDeleteबिन ममता के आज कहें।
वाह वाह बहुत खूब बहुत सुन्दर सृजन गुरु देव
वाह !बहुत ही सुंदर 👌👌
ReplyDeleteवाह!!!
ReplyDeleteलाजवाब सृजन।