Thursday, April 9, 2020

नवगीत : आक्रोशित हिय : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत 
आक्रोशित हिय 
संजय कौशिक 'विज्ञात' 

मापनी 16/14

देकर पाषाणों सी ठोकर 
प्रेम कहाँ पर ले आया। 
ढलती साँझे साँसे फूली
आक्रोशित हिय घबराया।।

1
स्पर्श एक से चरखा चलता
बात हवा सी बतियाता।
ताकू जैसे मुख से उगले
स्नेह प्रभावी दिखलाता।
धुरी प्रेम सी टूट गई जब
सृष्टि चक्र सा थम जाता।
तड़प उठा जब बहक हवा ने
अंग छुवन सा सहलाया।।

2
खण्डित दर्पण करता क्रंदन
रूप शतक लेकर अंदर।
लहरें करती ताण्डव नर्तन
शांत हृदय की ये कंदर।
और पीर का बुझता दीपक
हाँफ रहा जैसे बन्दर।
कष्ट अडिग चट्टानों जैसे 
इन्हें व्यर्थ ही समझाया।।

3
कच्चा घर दीवारें कच्ची
पूछ उठी हैं बात वही।
बोल रहे हैं कच्चे रिश्ते
टूट गये क्या खाक सही।
आहत कब करती दीवारें
पक्की सी यूँ बात कही।
सुनकर उनकी बात अचानक
हृदय द्रवित सा चिल्लाया।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

12 comments:

  1. उत्कृष्ट सृजन आदरणीय🌷🙏🌷

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  2. देकर पाषाणों सी ठोकर
    प्रेम कहाँ पर ले आया।
    वाह बहुत खूब

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  3. वाह!!!
    बहुत ही उत्कृष्ट, लाजवाब...

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  4. हृदय स्पर्शी सार्थक सृजन ।

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  5. बहुत सुन्दर और भावप्रवण गीत।

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  6. सादर नमन आदरणीय 🙏🙏🙏
    बहुत ही भावपूर्ण नवगीत 👌👌👌 शानदार अनोखे बिम्ब आपके सृजन की खासियत है। हर नवगीत बहुत ही प्रेरणादायक....बहुत बहुत बधाई शानदार सृजन की 💐💐💐💐

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  7. शानदार समसामायिक रचना।

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  8. बहुत सुन्दर

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  9. वाह!!!
    लाजवाब सृजन।

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