नवगीत
सृष्टि का विस्तार
संजय कौशिक 'विज्ञात'
मापनी 14/14
सृष्टि का विस्तार होगा
रिक्तपन अब फिर जरूरी।
काल नदिया चीखती सी
बात कहती सब अधूरी।।
1
और भावी फिर करेगी
मौन से संवाद कितने
नाद देखी चुप खड़ी सी
गूँजते है शब्द इतने
शंख ध्वनि अब चीर देगी
दूर तक की शांति पूरी।
2
उर्मि भी अब कुछ ठहर कर
सिंधु को आभास देती
नीर ये सोखा गया सा
सोच जब हलचल न लेती
ये प्रवाहित सी हवा भी
छोड़ती सी आज धूरी
3
तत्व सारे शोधने हैं
आज जीवन सोच ले जो
और खालीपन सजाकर
कष्ट तन से नोच ले जो
आत्म मंथन आज नियमित
बुद्धि सोचे ये विदूरी
4
शुद्ध हो वातावरण ये
हवि हवन में दें अगर सब
फिर धुँआ पावन उड़ेगा
गाँव बस्ती से नगर सब
आरती की घण्टियाँ भी
श्वास गुंजित बन कपूरी
संजय कौशिक 'विज्ञात'
उत्कृष्ट
ReplyDeleteतत्व सारे शोधने हैं
ReplyDeleteआज जीवन सोच ले जो
और खालीपन सजाकर
कष्ट तन से नोच ले जो
आत्म मंथन आज नियमित
बुद्धि सोचे ये विदूरी
वाह बहुत खूब बेहतरीन सृजन गुरु देव जी
बहुत सुंदर आदरणीय आपकी यह नवगीत
ReplyDeleteवाह अप्रतिम रचना
ReplyDeleteउत्कृष्ट रचना
ReplyDeleteबढ़िया नवगीत
ReplyDeleteलाजवाब नवगीत...
ReplyDeleteवाह!!!