Monday, April 13, 2020

नवगीत : कोप : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत 
कोप 
संजय कौशिक 'विज्ञात' 

मापनी~~ 16/14 


एक कोप कोरोना बनकर
खेल रहा है आँख मिचौली।
घूँघट बदली का है पतला
यही सूर्य से धरती बोली।।

1
नूतन काल सृष्टि परिवर्तन
उपवन भी सब महके महके
वातावरण हुआ आतंकित
भ्रमर भ्रमित हैं बहके बहके
एक आँख की कानी गोरी
बन्द करी कब आँखें खोली।।

अवगुंठन में बंद कली सब
तड़प रही सी बंधन पाकर 
फूलों पर भी देख आवरण
बाग खड़ा विस्मित सा आकर
गाकर सारे राग रागनी
वीणा के स्वर ढूंढे टोली

3
बैसाखी पर कनक हरे से
नेत्र द्रवित लें आज निहारें
आढ़त दामी की सब बोली
मिले नहीं बिन भाव पुकारे
सारे झगड़े का सा कारण
भार किये बिन बोरी तोली

संजय कौशिक 'विज्ञात'

10 comments:

  1. बहुत खूब
    👍👍👍👍

    डॉ़ यथार्थ

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  2. बहुत ही सुन्दर रचना 🙏

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  3. वाह!!
    अनुपम!!
    अलहदा सी व्यंजनाएं गीत को नया ओज देती सी।

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  4. बहुत सुंदर आदरणीय कोरोना पर

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  5. बहुत ही सुन्दर
    वाह!!!

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  6. सुन्दर प्रस्तुति

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  7. शानदार नवगीत 👌🏻👌🏻👌🏻

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