Wednesday, September 8, 2021

नवगीत : डोर की आहें : संजय कौशिक 'विज्ञात'



नवगीत 
डोर की आहें 
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी 14/14 

श्रावणी का हर्ष खिलता 
तो कहीं राखी पिघलती
दूर बहना से कलाई
डोर की आहें निकलती।।

चुप पड़ी एकांत में वो
थाल उसको मौन देखे
और टीका रोलियों का
चावलों में कौन देखे
दिख न पाया भाल उनको
वो घड़ी विष ही उगलती।।

दीप का अन्तस् सिसकता
व्याधि करती परिकलित तब
बातियाँ बहना बनी नित
और दीपक प्रज्वलित तब
एक दावानल बना सा
प्रीत बहना रीत जलती।।

दृष्टि रक्तिम चीख कहती
पर पलक हैं शांत बैठी
कुछ प्रतीक्षा झूठ की है
मार मन को क्लांत बैठी
बिन कलाई डोरियों की
हिय व्यथा किनसे सँभलती।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'

9 comments:

  1. वाह वाह वाह अति उत्कृष्ट सृजन गुरुदेव जी
    नमन आप को और आप की लेखनी को।

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  2. चुप पड़ी एकांत में वो
    थाल उसको मौन देखे
    बहन के हृदय के पीड़ा को व्यक्त करती सृजन
    जय हो गुरुदेव जी

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  3. मार्मिक नवगीत । शानदार सृजन ।
    मन अंतस के भाव उतरे लेखनी से ।

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  4. बहुत। ई शानदार नवगीत मार्मिक सृजन भाव खूबसूरत चुप पड़ी एकांत में वो.......बहुत सुन्दर🙏🙏🙏🙏🙏👌👌👌👌👌👌

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  5. हृदय स्पर्शी मार्मिक नवगीत
    बहुत ही सुंदर 👌🙏

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  6. दीप का अन्तस् सिसकता
    व्याधि करती परिकलित तब
    बातियाँ बहना बनी नित
    और दीपक प्रज्वलित तब

    हृदयस्पर्शी सृजन आदरणीय,मार्मिक सृजन , बहुत सुंदर

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  7. सादर नमन गुरुदेव 🙏
    बहुत ही हृदय स्पर्शी नवगीत 👌👌👌
    प्रत्येक बिम्ब नवीनता लिए हुए ...शानदार 👌

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  8. सचमुच बहुत ही भावपूर्ण गीत👍👍👌👌

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  9. हृदय स्पर्शी रचना सचमुच डोर आहें भर रही है बहन के साथ साथ ।
    अप्रतिम।

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