Thursday, September 2, 2021

नवगीत : विभाजन : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत
विभाजन 
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी- 16/14

एक विभाजन की रेखा ने
पक्के घर को तोड़ दिया।
और हिमालय से ऊँची बन
अपनों का मुख मोड़ दिया।।

आज विचार हुए यूँ खण्डित
मन का दर्पण टूटा है
स्वर्णिम से सपनों की आभा
आज तड़पती लूटा है
कूटा है यूँ एकाकी में
पूरा जीवन छोड़ दिया।।

नेत्र घटा बन नित्य बरसते
सावन भादों भी सिसके
सूर्य बना इक दीप निशा का
मंदित आभा दे चस के
खस के आँसूं इन गालों पर
रिक्त भरा फिर झोड़ दिया।।

मौन विवादित संस्कारों से
संस्कृति ने की भीत खड़ी
हार गए लुकमान धरा पर
रोग वहम की ढूँढ जड़ी
और कड़ी जब जोड़ न पाए
औषधि का घर फोड़ दिया।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'

7 comments:

  1. बेहद हृदयस्पर्शी नवगीत आदरणीय।

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  2. बिखरते परिवार की वेदना को बहुत ही मार्मिक तरीके से व्यंजनाओ में पिरोता हुआ सुंदर नवगीत 👌🙏

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  3. बिखरते परिवार की वेदना को बहुत ही सुंदर शब्दों एवं व्यंजनाओ में पिरोया हुआ नवगीत 👌🙏

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  4. बेहद मार्मिक टूटते परिवारों की विडंबना बहुत सुन्दर गुरुदेव आपकी यह रचना व्यजंनाओ से परिपूर्ण नवगीत👌👌👌👌🙏🙏🙏🙏🙏

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  5. मन के दर्द को चित्रित करती शानदार रचना💐💐

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  6. शानदार, लुकेमान, औषधि का घर
    लाजवाब

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