नवगीत
विभाजन
संजय कौशिक 'विज्ञात'
मापनी- 16/14
एक विभाजन की रेखा ने
पक्के घर को तोड़ दिया।
और हिमालय से ऊँची बन
अपनों का मुख मोड़ दिया।।
आज विचार हुए यूँ खण्डित
मन का दर्पण टूटा है
स्वर्णिम से सपनों की आभा
आज तड़पती लूटा है
कूटा है यूँ एकाकी में
पूरा जीवन छोड़ दिया।।
नेत्र घटा बन नित्य बरसते
सावन भादों भी सिसके
सूर्य बना इक दीप निशा का
मंदित आभा दे चस के
खस के आँसूं इन गालों पर
रिक्त भरा फिर झोड़ दिया।।
मौन विवादित संस्कारों से
संस्कृति ने की भीत खड़ी
हार गए लुकमान धरा पर
रोग वहम की ढूँढ जड़ी
और कड़ी जब जोड़ न पाए
औषधि का घर फोड़ दिया।।
©संजय कौशिक 'विज्ञात'
बेहद हृदयस्पर्शी नवगीत आदरणीय।
ReplyDeleteबिखरते परिवार की वेदना को बहुत ही मार्मिक तरीके से व्यंजनाओ में पिरोता हुआ सुंदर नवगीत 👌🙏
ReplyDeleteबिखरते परिवार की वेदना को बहुत ही सुंदर शब्दों एवं व्यंजनाओ में पिरोया हुआ नवगीत 👌🙏
ReplyDeleteबेहद मार्मिक टूटते परिवारों की विडंबना बहुत सुन्दर गुरुदेव आपकी यह रचना व्यजंनाओ से परिपूर्ण नवगीत👌👌👌👌🙏🙏🙏🙏🙏
ReplyDeleteमन के दर्द को चित्रित करती शानदार रचना💐💐
ReplyDeleteशानदार, लुकेमान, औषधि का घर
ReplyDeleteलाजवाब
लाजवाब
ReplyDelete