नवगीत
घर पीछे बड़बेर
संजय कौशिक 'विज्ञात'
मापनी - 11/15
घर पीछे बड़बेर
सुना बेरों से बतियाती
सिंचित करता कौन
व्यथा भीतों से कह जाती।।
बिन सिंचन का कष्ट
विटप तप-तपता सा निगले
तरु बेरी तन कोढ़
सिसकता शूलों को उगले
शाखाओं पर खेद
सदा पत्तों में छिपवाती।।
शूल सुनाते गीत
सुने तब टहनी भी लरजे
क्रंदन रोके अश्रु
तभी उन बेरों को बरजे
द्रव देकर माधुर्य
विदाई सूखी करवाती।।
ले अन्तस् में गाँठ
चला जब बेर लुढ़कता सा
वज्र प्रहारी चोट
सहे जड़ पात टसकता सा
सांकेतिक सा बोल
यही गुठली है समझाती।।
©संजय कौशिक 'विज्ञात'
खूबसूरत बिम्बों से सजा सुंदर नवगीत 👌
ReplyDeleteबिम्ब, कथन, शिल्प सब नया 👌
हार्दिक बधाई अनुपम सृजन की गुरुदेव 💐💐💐
बहुत ही गजब नये खूबसूरत बिम्बो से सुसज्जित लय पर भी शानदार अनुपम सृजन🙏🙏🙏🙏👌👌👌👌
ReplyDeleteगुठली है समझाती....👌👌👌👌😄😄😄
ReplyDeleteबहुत सुंदर गुरुवर
ReplyDeleteवाह वाह अनुपम गीत बधाइयाँ
ReplyDeleteबेहद ख़ूबसरत नवगीत 👌👌👌
ReplyDeleteकरुण रस का अद्भुत चित्रण।
ReplyDeleteअभिनव प्रयोग अभिनव व्यंजनाएं।
ले अंतस में गाँठ चला जब बेर लुढकता सा👌🏼👌🏼👌🏼वाहह आदरणीय..नूतन बिंबोंसे बेहतरीन नवगीत👏🏼👏🏼👏🏼👏🏼
ReplyDeleteलाजवाब हृदयस्पर्शी,शानदार नवगीत💐💐🙏🙏
ReplyDeleteनूतन बिंब ओढ़े हृदयस्पर्शी नवगीत👌👌💐💐🙏🙏
ReplyDeleteकरुण रस से सराबोर अंतस व्यथा को दर्शता नवगीत
ReplyDeleteखूबसूरत नवगीत आपकी कलम की देन हम सभी को धन्यवाद
ReplyDeleteबेहद खूबसूरत नवगीत सृजन!
ReplyDeleteज्ञान भंडारी!
ReplyDeleteबेहद खूबसूरत नवगीत सृजन!