Friday, May 14, 2021

नवगीत : हिचकी में बसती सौगातें : संजय कौशिक 'विज्ञात'



नवगीत 
हिचकी में बसती सौगातें
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी ~16/14

हिचकी में बसती सौगातें 
मत पूछो कितनी गहरी
नभ मण्डल से श्वास उतरती
हिय आँगन जितनी गहरी।।

शुभ्र वर्ण की उज्ज्वल आभा
लज्जित ज्यूँ श्वेत जुन्हाई
कृष्ण पक्ष की घात सही जब
जागी कुछ पीर पराई
गाई तम ने चमक चाँदनी
रात लगी बितनी गहरी।।

एक मिलन फिर शेष आस का
ये संदूक पिटारा है
जो हिय को पतझड़ की ऋतु में
देता नेक सहारा है 
स्मृति के अवशेषों की बगिया 
भले लगी छितनी गहरी।।

जीवन यात्रा पावन गङ्गा
लिखती शोध कहानी है
निर्मल उज्ज्वल अन्तस् तक की
रहती शुद्ध निशानी है
गंधक ले गहराई उबले
प्रीत बसी इतनी गहरी।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

14 comments:

  1. वाह अद्भुत बिम्ब
    गंधक ले गहराई उबले
    उत्तम सृजन

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  2. सादर नमन 🙏🙏🙏
    बहुत ही खूबसूरत भावपूर्ण रचना 👌👌👌

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  3. सुंदर सृजन
    नमन गुरु देव 🙏

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  4. बहुत शानदार गुरुदेव आपकी यह रचना नमन आपको👌👌👌🙏🙏🙏🙏🌹🌹🌹

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  5. बहुत सुंदर।सादर नमन गुरुवर

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  6. वाह! अद्भुत व्यंजनाएं।
    अप्रतिम नवगीत।

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  7. बहुत सुन्दर नवगीत ।।बधाई गुरूदेव ।। लेखनी यूँ ही चमकती रहे ।

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  8. अति सुंदर गीत
    लेखनी को प्रणाम

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  9. बहुत सुंदर गीत आ0

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  10. अति सुंदर गीत आदरणीय नमन आपकी लेखनी को सादर प्रणाम

    डॉ संगीता पाल कच्छ गुजरात

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  11. अति सुंदर गीत आदरणीय नमन आपकी लेखनी को सादर प्रणाम

    डॉ संगीता पाल कच्छ गुजरात

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  12. अनूठे बिम्बों से सजा..अप्रतिम नवगीत आदरणीय🙏🙏🙏

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