Wednesday, February 5, 2020

नवगीत: व्यंजना कितनी समेटूं ◆संजय कौशिक 'विज्ञात'

नवगीत: 
मुखड़ा/पूरक पंक्ति - 14/14 
अंतरा - 14/14 

व्यंजना कितनी समेटूं,
पृष्ठ पर मनमीत मेरे।

1
देख अक्षर मौन हैं अब,
शांत हैं सब भाव मेरे।
मंद है बेशक कलम पर,
जानती है घाव मेरे।
इस हवा से जब छिपाये,
रक्त रंजित स्राव मेरे।

सागरों की उर्मियों में,
भी बसे अब गीत मेरे।
व्यंजना कितनी समेटूं,
पृष्ठ पर मनमीत मेरे।

2
हो सके तो छोड़ दे तू,
इस कलम से खेलना फिर।
मुक्त अभिव्यक्ति लिखेगी,
तो सहज हो झेलना फिर।
बन्द करना ये पड़ेगा,
तू करे अवहेलना फिर।

दाव पर मैं स्वप्न मेरे,
हारते तब जीत मेरे।
व्यंजना कितनी समेटूं,
पृष्ठ पर मनमीत मेरे।

3
बादलों ने पीर गाई,
घाटियाँ गुंजित हुई तब।
लेखनी की वेदना से,
वेदना कंपित हुई तब।
बिम्ब बनते कथ्य के बिन,
बात वो कौशिक हुई तब।

आज तक अटकी हुई जो,
भाग्य की वो रीत मेरे।
व्यंजना कितनी समेटूं,
पृष्ठ पर मनमीत मेरे।

संजय कौशिक 'विज्ञात' 

@vigyatkikalam

12 comments:

  1. बहुत ही सुंदर भावपूर्ण रचना 👌👌👌

    बादलों ने पीर गाई
    घाटियाँ गुंजित हुई तब
    लेखनी की वेदना से
    वेदना कंपित हुई तब
    बिम्ब बनते कथ्य के बिन
    बात वो कौशिक हुई तब

    मानवीकरण के खूबसूरत प्रयोग से रचना बोलने लगी 👌 बहुत बहुत बधाई शानदार सृजन की 💐💐💐💐

    ReplyDelete
    Replies
    1. आत्मीय आभार नीतू जी, आप रचना की खुल कर प्रशंसा करती हैं जो पुनः सृजन के लिए प्रेरित करती हैं पुनः आत्मीय आभार

      Delete
  2. वाह वाह अतिसुंदर, मन खिल गया पढकर,,मैं कहां कहां ढ़ूंढ रही थी, यहां मिले आप

    ReplyDelete
  3. उत्कृष्ट सृजन शब्द शब्द बोलता है ,अपनी गाथा वाह्ह्ह्!

    ReplyDelete
    Replies
    1. प्रेरणात्मक टिप्पणी के लिए आत्मीय आभार कुसुम जी, बहुत कुछ सीखते हैं आपसे

      Delete
  4. वाह वाह अतिसुंदर

    ReplyDelete
  5. वाह वाह अतिसुंदर

    ReplyDelete
  6. वाह वाह अतिसुंदर

    ReplyDelete