Wednesday, February 5, 2020

नवगीत ●अंबर को पाती भिजवाई● ■संजय कौशिक 'विज्ञात' ■


नवगीत 
अंबर को पाती भिजवाई
संजय कौशिक 'विज्ञात' 

मुखड़ा/पूरक पंक्ति ~ 16/14 
अंतरा ~ 16/14 

मुखड़ा 
अंबर को पाती भिजवाई,
आकुल-व्याकुल धरती ने।
पीर विरह जलती लिखवाई,
तीव्र श्वांस कुछ करती ने।

आन्तरा-1
त्रस्त-पस्त है शुष्क बावड़ी,
ताप दाह से रोती है।
खंड-खंड में आग लगी है,
अपना आपा खोती है।

अकुलाई बातें पुछवाई,
मिलन आस पर मरती ने।
अंबर को पाती भिजवाई,
आकुल-व्याकुल धरती ने।

2
रग-रग में सौंदर्य समाया,
खंड पुष्प अंकित ऐसे।
देख अलंकृत-कृति मनभावन,
छंदबद्ध टंकित जैसे।

स्वर्ण-प्रभा पड़ती दिखलाई,
यौवन रस-सी झरती ने।
अंबर को पाती भिजवाई,
आकुल-व्याकुल धरती ने।

3
उत्सुकता अन्तस् में कितनी,
दृष्टि मात्र स्थिर है दर पर।
एक उपाय यही वह कहती,
मेघा आओ अपने घर।

सजल नयन बूँदें बरसाई,
दुग्ध-पात्र गौ भरती ने।
अंबर को पाती भिजवाई,
आकुल-व्याकुल धरती ने।

4
धर्म बैल है एक पैर पर,
धरा बिलखती क्रंदन से।
भूखी प्यासी लता खनिज है,
लिखे भाव अभिनंदन-से।

बनी उपासक ज्यूँ तरुणाई,
छवियाँ मुखर उभरती ने।
अंबर को पाती भिजवाई,
आकुल-व्याकुल धरती ने।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

@vigyatkikalam

5 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (29-01-2020) को   "तान वीणा की माता सुना दीजिए"  (चर्चा अंक - 3595)    पर भी होगी। 
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। 
     --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'  

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  2. त्रस्त-पस्त है शुष्क बावड़ी
    ताप दाह से रोती है
    खंड-खंड में आग लगी है
    अपना आपा खोती है
    वाह वाह बहुत खूब प्रणाम आप की लेखनी को

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